Tuesday, May 26, 2009

जीवन है क्या संगीत बिना


गर्मियों की छुट्टियों में स्टूडेंट्स को अपना शौक निखारने के लिए पर्याप्त समय मिलता है। ऐसी ही एक हॉबी है म्यूजिक, इस क्षेत्र में सही शुरुआत की जाए तो यह भविष्य का सुनहरा द्वार भी खोल सकती है। 

समय के साथ मानसिकता में भी बदलाव आया है। कुछ समय पूर्व समर वैकेशन का अर्थ हुआ करता था छुट्टियों के दिन, लेकिन आज के विद्यार्थी बहुत सजग हैं। वह अपने इस महत्वपूर्ण समय को यूँ ही बेकार नहीं करना चाहते हैं। सो, स्कूल कालेज बंद होते ही शिक्षा से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं और स्कूलों ने समर क्लासेज प्रारंभ कर दी हैं जहाँ विद्यार्थी प्रतिभा व रुचि के अनुसार भविष्य की बुनियाद रख सकते हैं।
संगीत सभी को आकर्षित करता है, इसीलिए मनोरंजन और व्यक्तित्व विकास को ध्यान में रखते हुए स्कूलों में पाठ्यक्रम के रूप में या एक्सट्रा एक्टिविटी के रूप में संगीत की शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है। विद्यार्थी इस शौक को निखार कर यदि संगीत में कैरियर बनाना चाहते हैं तो इस क्षेत्र में ढेरों अवसर हैं जिसमें कार्य कर आप पहचान और पैसा दोनों पा सकते हैं। हर क्षेत्र की तरह संगीत में भी सफलता पाने के लिए आवश्यक है आत्मविश्वास, धैर्य और लगन के साथ ही पूर्ण दक्षता। संगीत ऐसी हॉबी है जिसे सीखने के साथ-साथ आप अपनी पढ़ाई भी जारी रख सकते हैं। अगर आपको संगीत की उचित समझ हो गई और आपने किसी अन्य क्षेत्र में जॉब कर रखा है तो भी आप पार्टटाइम काम कर अतिरिक्त पैसा कमा सकते हैं।
आवश्यक है गहरी समझ
आप संगीत के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए प्रयासरत हैं तो आवश्यक है कि आप किसी योग्य, अनुभवी शिक्षक से कक्षायें लेने के साथ ही संगीत संस्थाओं से मार्ग दर्शन ले तैयारी करें। प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद इस संदर्भ में लचीली दूरस्थ शिक्षा देती है वहीं कानपुर में अशोकनगर स्थित लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी नियमित कक्षाओं द्वारा इस हुनर को निखारने में सहायक है। गुरु-शिष्य परंपरा में शिक्षा लें या कोई संस्था ज्वाइन करें, शर्त यह है कि आपको संगीत को गहनता से समझना होगा।
संगीत के प्रकार
संगीत की कई विधाएं हैं जैसे शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक, वेस्टर्न, पॉप आदि। अगर आप इनके बारे में गहन जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको शास्त्रीय संगीत में परिपक्व होना आवश्यक है, क्योंकि भारतीय संगीत का प्रमुख आधार शास्त्रीय संगीत है, चाहे आप गायक बनें या वादक।
कैसे करें तैयारी
संगीत के क्षेत्र में तैयारी करने के लिए आवश्यक है कि आप प्रशिक्षण लेने के साथ ही नियमित रियाज करें। इसके लिए आप स्वयं अभ्यास करने के साथ ही जो सीख रहे हों, उसके सी. डी./ऑडियो कैसेट खरीद कर अभ्यास तो कर ही सकते हैं, अपनी कमियों को दूर करने के साथ ही आत्मविश्वास को बढ़ा सकते हैं।
कार्य के अवसर
इस क्षेत्र में रोजगार के ढेरों अवसर हैं जहाँ आप अपनी प्रतिभा के बल पर सफल कैरियर बना सकते हैं। इसमें आप रिकार्डिस्ट, गायक, म्यूजिक डायरेक्टर, म्यूजिक अरेंजर, गीतकार, वादक (इसमें आपको किसी भी वाद्य यंत्र को बजाने की अच्छी जानकारी होनी चाहिए) आदि बन सकते हैं। यदि आप स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहते हैं तो स्वयं का रिकार्डिंग स्टूडियो, रिंगटोन कम्पोजिंग, म्यूजिक मिक्सिंग, ऑडियो कंपनी आदि का कार्य कर सकते हैं। मीडिया में संगीत आलोचना और सांस्कृतिक रिपोर्र्टिंग में भी संगीत की समझ आपकी प्रोफाइल को मजबूत करती है। डिस्क जॉकी के रूप में फ्रीलांसिंग भी अच्छा और आधुनिक कैरियर विकल्प बन सकता है।  इसी तरह लीक से हट कर कैरियर बनाने के इच्छुक विद्यार्थी म्यूजिक थैरेपी जैसी नवीन विधा में हाथ आजमा सकते हैं।

रोल मॉडल 1
हॉबी से मशहूर हुए डॉ. संजय

संगीत के क्षेत्र में पहचान बनाने के सपने देखने वाले विद्यार्थियों के लिए सी.एस.जे.एम. यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. संजय स्वर्णकार मिसाल हो सकते हैं। एक तरफ वह अंग्रेजी प्राध्यापक के रूप में जाने जाते हैं, वहीं उनकी पहचान मशहूर भजन-गजल गायक के रूप में भी है।
श्री स्वर्णकार ने अपनी हॉबी और कैरियर में ऐसा बढिय़ा संतुलन साधा है कि आज दोनों क्षेत्रों में उनका नाम 'खरा सोना' समझा जाता है। वे बताते हैं, ''मुझे संगीत सीखने की प्रेरणा 1982 में स्नातक की पढ़ाई के दौरान एक गिटारिस्ट दोस्त से मिली थी, लेकिन मेरा लक्ष्य अंग्रेजी में डॉक्टरेट करने का ही था। आज मैं अध्यापन के साथ पीएचडी कराता हूं, साथ ही संगीत के क्षेत्र में प्रोफेशनल सिंगर हूं। मैं अपने ग्रुप के साथ स्टेज प्रोग्राम करता हूं जिससे मुझे संतुष्टि मिलती है।'
इस हॉबी में परफेक्ट होने का ही परिणाम है कि यद्यपि संगीत उनका विषय नहीं है, किन्तु विश्वविद्यालय ने अपने यहां खुले डिपार्टमेंट ऑफ म्यूजिक में उन्हें कोआर्डिनेटर की जिम्मेदारी सौंपी है। संगीत संबंधी कई सम्मान प्राप्त कर चुके श्री स्वर्णकार कहते हैं, ''यदि संगीत में आप की रुचि है तो आप इसे कैरियर के रूप में चुन सकते हैं। यदि यह सिर्फ आपका शौक है तो भी आप अपने कार्य से पैसा और नाम दोनों पा सकते हैं।'

रोल मॉडल 2
म्यूजिक स्टूडियो चला रहे हैं सुमन

संगीत के क्षेत्र में कैरियर बनाने के उत्सुक विद्यार्थी कानपुर के सुमन शर्मा से प्रेरणा ले सकते हैं। स्टूडेंट लाइफ में पढ़ाई के साथ संगीत का शौक रखने वाले सुमन ने संगीत में प्रभाकर की शिक्षा लेकर अपने कैरियर की शुरूआत एक वादक के रूप में की थी। उन्होंने अपने कार्य की शुरुआत मुंबई में एक गिटारिस्ट के रूप में की। कुछ वर्षों तक कार्य करने के बाद उन्हें टी. सिरीज म्यूजिक कंपनी में रिकार्डिस्ट के रूप में कार्य करने का अवसर मिला।
हमेशा कुछ सीखने की ललक रखने वाले सुमन ने वहाँ वर्तमान संगीत और तकनीक के बारे में जानकारी एकत्र कर अपने कार्य को और बेहतर बनाया। वर्तमान में सुमन कानपुर के पांडुनगर मुहल्ले में अपना म्यूजिक रिकार्डिंग स्टूडियो चला रहे हैं। सुमन कहते हैं, ''संगीत के क्षेत्र में रोजगार के ढेरों अवसर हैं। इसके लिए आवश्यक है कि आपको शास्त्रीय संगीत के बारे में गहरी जानकारी हो। इसके पश्चात आप इस क्षेत्र में तकनीकी, गायन, वादन आदि कोई कार्य कर सकते हैं। म्यूजिक रिकार्डिंग कार्य से जुड़े सुमन कहते हैं, ''यह वह क्षेत्र है जिसमें आप अन्य कार्य करने के साथ ही इस कार्य को कर सकते हैं, लेकिन इन सबके साथ आवश्यक है धैर्य और सच्ची लगन।'

Saturday, May 23, 2009

अइयो आइसक्रीम!










वह दिन गए जब आइसक्रीम सिर्फ बच्चों की पसंद हुआ करती थी, बल्कि आज आइसक्रीम के दीवानों में बच्चों के साथ बड़ी संख्या में युवक-युवतियां और वयस्क भी शामिल हैं

वैसे तो आइसक्रीम का स्वाद वर्ष भर लोगों को अपना दीवाना बनाए रखता है, लेकिन बच्चे हों या बड़े गर्मियां शुरू होते ही आइसक्रीम पार्लरों में 'ठंडा-ठंडा कूल-कूल' होने के लिए पहुंच ही जाते हैं। अशोकनगर, गुमटी नंबर 5, स्वरूपनगर, मालरोड आदि जगहों में स्थित आइसक्रीम पार्लरों में दिन भर इसके प्रेमियों की चहलकदमी देखी जा सकती है।
इन दिनों शहर के आइसक्रीम पार्लरों में लवरनेस्ट और आइरिश जैसे नए-नवेले फ्लेवर्स में आइसक्रीम का स्वाद खूब मजे से लिया जा रहा है। गर्मियों के इस मौसम में कोल्डड्रिंक्स के बाद सबसे ज्यादा लुभाने वाली चीज है आइसक्रीम। वह दिन गए जब आइसक्रीम सिर्फ बच्चों की पसंद हुआ करती थी, बल्कि आज आइसक्रीम के दीवानों में बच्चों के साथ बड़ी संख्या में युवक-युवतियां और वयस्क भी शामिल हैं।
फ्लेवर्स की है भरमार
आइसक्रीम के बाजार में फ्लेवर्स की कोई कमी नहीं है। यहाँ इतनी वैरायटियां उपलब्ध हैं कि किसी एक को चुनना मुश्किल होता है। कंपनियां हर वर्ष ग्राहकों को लुभाने के लिए नये-नये फ्लेवर बाजार में उतारती हैं। सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले फ्लेवर्स में अमेरिकन ब्लू, बटर स्काच, स्वील, केसर-पिस्ता आदि है।
युवाओं की खास पसंद 
आज आइसक्रीम के दीवानों का सबसे बड़ा वर्ग युवाओं का है। एक आइसक्रीम पार्लर संचालक अविनाश सिंह की मानें तो, ''युवाओं की पसंद को ही ध्यान में रखकर कंपनियां आइसक्रीम के नाम और फ्लेवर्स का निर्धारण करती हैं। तपिश और गर्मी भरे मौसम में युवा अपने फ्रेंड के साथ खिंचे चले आते हैं। यहां उन्हे तन और मन, दोनों को ही ताजा करने का मौका मिलता है।'
सोडा और शेक भी
आइसक्रीम के साथ ही सोडा और शेक भी पसंद किये जाते हैं। स्ट्राबेरी, मैंगो पाइनएप्पल, चीकू के साथ लीची के फ्लेवर में शेक का मजा लिया जा सकता है। इनमें वैरायटियां तो हैं ही, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के फ्लेवर भी मौजूद हैं।
जमाना ज्यूस्टिक्स का
ब्रांडेड आइसक्रीम में कप्स एंड कोन के साथ ही ज्यूस्टिक्स भी काफी पसंद किए जा रहे हैं। च्वाइस आइसक्रीम के किशन चौरसिया बताते हैं, ''कंपनियों ने नींबू पानी और कई शर्बतों के फ्लेवर में ज्यूस्टिक्स बाजार में उतारे हैं। यह ग्राहकों को खूब लुभा रहे हैं। गर्मियों के इस मौसम में बर्थ डे, पिकनिक और पार्टियों में इनकी काफी डिमांड है।'
कायम है कुल्फी
शहर का आइसक्रीम मार्केट भले ही देशी-विदेशी ब्रांडेड आइसक्रीम से पटा हो लेकिन लोगों को मटका कुल्फी का स्वाद आज भी उतना ही पसंद आ रहा है। गली, मुहल्लों, चौराहों पर ठेलों पर बिकती मटके वाली फालूदा कुल्फी का अपना ग्राहक वर्ग है। फालूदा कुल्फी के शौकीन राजेश कहते हैं कि  बाजार में चाहे जितने फ्लेवर उपलब्ध हों, लेकिन मटके वाली कुल्फी की बात ही कुछ और है। इसे जहां चाहो आराम से खरीदो और खाओ, साथ ही दाम भी वाजिब होते हैं!

बन रही हैं इमारतें रंग-बिरंगी










कभी इंटीरियर के लिए मुफीद माने जाने वाले चटख रंगों का प्रयोग अब इमारतों के एक्सटीरियर में भी खूब हो रहा है। कानपुर में पिछले कुछ वर्षों में बनी और वर्तमान में बन रहीं इमारतों पर नजर डालने पर पता चलता है कि शहर में चटख रंगों वाली इमारतों की संख्या बढ़ती ही जा रही है

इन्हें आप आधुनिक काल की स्थापत्य कला का आरंभिक नमूना मान सकते हैं। आरंभिक इसलिए कि शायद भविष्य के कानपुर में आपको ऐसी इमारतें बहुतायत में देखने को मिलें। इन आधुनिक बिल्डिंगों की कई विशेषताएं इन्हें दर्शनीय बनाती हैं। नीले, लाल, नारंगी, हरे जैसे  ब्राइट कलर्स का खूब प्रयोग किया जाता है। साथ ही किसी माडर्न आर्ट सरीखी आड़ी-तिरछी रेखाएं भी इन इमारतों की खास पहचान होती हैं।
रेव-थ्री,  रेव मोती, यूनिवर्सिटी के थियेटर हॉल, मेगा मॉल्स, कुछ स्कूल्स और रेनोवेट हुईं कुछ टाकीजों का नाम ऐसी इमारतों में लिया जा सकता है। इस ट्रेंड के बारे में इंटीरियर डिजाइनर दिव्या पाण्डेय कहती हैं, ''लाल-नीले-पीले जैसे चटख रंगों वाली बिल्डिंग्स लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं, इसलिए पब्लिक प्लेसेस की बिल्डिंग्स में ऐसे रंगों का खूब प्रयोग किया जा रहा है।'
दिव्या की बात पर समर्थन जाहिर करते आनंद बिल्डर्स के आनंद गुप्ता कहते हैं, ''चटख रंगों का इस्तेमाल रेजीडेंशियल की अपेक्षा कामर्शियल बिल्डिंग्स में अधिक होता है। 'जो दिखता है वही बिकता है' स्लोगन इस चलन पर पूरी तरह से फिट बैठता है। लोग बिल्डिंग की तरफ आकर्षित हों, इस उद्देश्य के तहत ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाता है।'
चटख रंगों वाली यह इमारतें कानपुराइट्स को आकर्षित तो कर ही रही हैं, साथ ही कानपुर को रंग-बिरंगा खूबसूरत लुक भी प्रदान कर रही हैं। इंटीरियर डेकोरेटर विवेक वर्मा के मुताबिक बेहतर कलर स्कीम इमारत की डिटेल को खुल कर और बेहतर तरीके से उभारती है। चटख रंगों वाली बिल्डिंगों की कलर स्कीम्स में रंगों के साथ ही माडर्न आर्ट सरीखी रेखाएं, मैनेक्वीन्स, स्टैचू आदि चीजों का भी प्रयोग किया जाता है। लोगों को आकर्षित करने के साथ ही इनका उद्देश्य अपनी इमारत को अलग अंदाज प्रदान करना होता है।
आजकल नयी बनने वाली इमारतों में चटख रंगों के साथ ही ग्लास का चलन भी देखने को मिल रहा है। ग्लास और लुभाते रंगों वाली इन  इमारतों ने नवीन निर्माण शैली को जन्म दिया है। दूर से चमकती इन इमारतों को रुक कर देखते लोगों को देख कर कहा जा सकता है कि यह इमारतें लोगों को आकर्षित करने के अपने उद्देश्य में कामयाब हैं!

पुनर्जन्म के 5 मिनट

किसी दुर्घटना के बाद कैसे दोबारा शुरू की जा सकती है जीवनरेखा, यही हुनर आम आदमियों को सिखा रहा है कानपुर के चिकित्सकों का एक दल

दुर्घटना अथवा अनहोनी पर किसी का बस नहीं चलता है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि किसी हादसे में घायल व्यक्ति को अगर समय रहते सही प्राथमिक उपचार मिल जाए तो उसे दूसरी जिंदगी मिल सकती है। प्राथमिक उपचार की यह सीमारेखा दुर्घटना से मात्र पांच मिनट की होती है और यह छोटा सा समय अंतराल ही तय कर देता है कि व्यक्ति की मृत्यु होगी अथवा उसको मौत के मुंह से खींच कर इसी जिंदगी में दिया जा सकेगा पुनर्जन्म!
मार्ग दुर्घटना, हृदयाघात, जहरीली गैस रिसाव, विद्युत करंट, पानी में डूबना, लकवा मार जाना आदि मामलों में व्यक्ति की मृत्यु चोटों से कम, बल्कि दम घुटने से ज्यादा होती है। ऐसी दुर्घटनाएं किसी परिवार का सहारा न छीन सकें; किसी घर का चिराग न बुझा दें, इस अच्छी भावना से कानपुर में काम कर रही एक गैरसरकारी संस्था प्राणोदय आम लोगों को बिना किसी शुल्क के और उन्हीं की चुनी हुई जगह पर सीपीआर-बीएलएस तथा बेसिक ट्रामा मैनेजमेंट सिखाती है। दुर्घटना के बाद रुके हुए दिल को पुन: धड़काने का यह कौशल तथा संबंधित व्यक्ति को पर्याप्त चिकित्सा सहायता मिलने तक जीवित बनाए रखने का यह विज्ञान कई जानों को बचाने में कामयाब रहा है।
यह कानपुर के लिए गर्व की बात है कि पूरे देश में यही इकलौता शहर है, जहां कुछ समाजसेवी भावना वाले व्यक्तियों और चिकित्सकों ने जीवनदीप जलाए रखने की ऐसी पहल की है और वह भी बिना किसी आर्थिक लाभ की भावना से। इसकी नींव आज से ५ वर्ष पूर्व कानपुर के एक चमड़ा व्यवसायी महबूब रहमान द्वारा समाजसेवा के लिए कुछ ठोस करने के विचार से पड़ी और इस शुभ संकल्प में कुछ डाक्टरों ने अपना कौशल जोड़ दिया। आज प्राणोदय की प्रमुख टीम में भारतीय वायुसेना के सेवानिवृत्त स्क्वाड्रन लीडर डा. सुनीत गुप्ता, डा. राजू केडिया और डा. प्रदीप टंडन जैसे चिकित्सक शामिल हैं।
किसी भी रूप में अनुदान न स्वीकारने वाली इस संस्था के पास 4 आयातित मानव पुतले हैं। यह चिकित्सक आम जनता द्वारा तय किए गए स्थान पर पहुंच कर 2-3 घंटे की कार्यशाला आयोजित करते हैं। इसमें लेक्चर्स, स्लाइड शो, पुतलों पर चिकित्सकों का प्रदर्शन और अंतत: आम जनता का पुतलों पर अभ्यास शामिल होता है। इन चिकित्सकों ने अब तक तकरीबन 62 कार्यशालाओं द्वारा लगभग 7,000 लोगों को दुर्घटना के बाद जीवन रक्षा का प्रशिक्षण दिया है। इसमें आम नागरिकों तथा ग्रामीणों के अतिरिक्त ट्रैफिक पुलिस, फायर ब्रिगेड, फैक्ट्री श्रमिक, स्कूली छात्र-छात्राएं, भारतीय वायुसेना कर्मचारी तथा एनसीसी कैडेट शामिल हैं। 
डा. सुनीत गुप्ता के अनुसार,''दुर्घटनाओं के बाद अक्सर लोग तमाशबीन बन कर मजमा लगा लेते हैं, लेकिन कोई बिरला ही मदद के लिए आगे बढ़ता है। वह भी घायल को अस्पताल ले जाने तक अपनी ओर से कुछ नहीं कर पाता और कई बार यह बेबसी मौत के रूप में सामने आती है। जीवन बचाने का यह कौशल सीखना बहुत आसान है; इससे आप घायल को उसकी साँसे वापस सौंप सकते हैं। महिलाओं और बड़े बच्चों को भी यह हुनर सीखना चाहिए, इससे वे घरों और स्कूलों में दुर्घटनाओं का दुष्प्रभाव रोक सकेंगे। हमारी अपील बस इतनी है कि दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को देख कर आगे बढ़ जाने अथवा झुंड में शामिल होने की जगह उसकी सहायता का हुनर सीखिए और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित कीजिए। दुर्घटना किसी को बता कर नहीं आती। अगर आप किसी की सहायता के लिए आगे नहीं बढ़ते तो यह उम्मीद कैसे करेंगे कि कल आप या आपका कोई परिचित ऐसी ही स्थिति में होने पर अगली सुबह का सूरज देख पाएगा?'

जहर चाहिए या जिंदगी

रासायनिक खादों और जहरीले पानी से सिंचाई के कारण सब्जियों और अनाज में घुल रहा है धीमा जहर। ऐसे में स्वास्थ्य के लिए वरदान बनकर आई है जैविक खेती और कानपुर में भी हो रहे हैं इसके प्रयोग

पहली नजर में यह बरसात आने से पहले चलाए जाने वाले नाला सफाई अभियानों जैसा ही लगा। आवास विकास कालोनी, हंसपुरम की सीमा से गुजरते हुए गंदे नाले के पानी को कुछ लोग बड़ी पाइपों और मशीन द्वारा खींच रहे थे, लेकिन जरा ठहरिए, यह सरकारी कर्मचारी नहीं-स्थानीय किसान थे। यह नाला सफाई का सामुदायिक अभियान भी नहीं, पास के खेतों की सिंचाई का तरीका था। उन हरी-भरी सब्जियों के लिए, जिन्हें डाक्टर इसलिए कच्चा खाने की सलाह देते हैं ताकि हमारे स्वास्थ्य की रक्षा हो और हम निरोगी रहें!
शहरी इलाकों और इससे लगी देहात की सीमा में अनाज और सब्जियों को उगाने के लिए यह खेल उसी तरह आम है, जैसे दूध पाने के लिए गाय-भैंस को नियमित रूप से हार्मोन इंजेक्शन देना। तर्क यह कि इस सड़ांध मारते जहरीले पानी से 'सब्जियों को खूब पोषण मिलता है और यह हरी-भरी हो जाती हैं, जबकि हकीकत यह है कि इस प्रक्रिया में सब्जियां धीमे जहर से भरी थैलियों में तब्दील हो जाती हैं। 
डायटीशियन और योग विशेषज्ञ अन्नपूर्णा तिवारी की राय है कि यह जिंदगी के नाम पर जहर देने वाली बात है। शीतल पेयों में कीटनाशकों की छोटी से मात्रा पाए जाने पर देश भर में विरोध हुआ, वहीं आपके सलाद से लेकर रोटी तक में घुल रहे इस जहर को आप चुपचाप खा लेते हैं। सब्जी ताजी है? का सवाल पूछना याद रहता है और आप यह कभी नहीं पूछते कि यह कैसे उगाई गई है? आज रासायनिक खादों और नालों के जहरीले पानी की बात छोडि़ए, लौकी-कद्दू में आक्सीटोसिन हार्मोन इंजेक्शन तक ठोंके जा रहे हैं ताकि वे एक रात में सरसरा कर बढ़ जाएं।
श्रीमती तिवारी को यह जान कर कुछ राहत मिलेगी कि जागरूक कानपुराइट्स अब इस धांधली के बारे में सवाल पूछने लगे हैं और इनमें से कई ने जहर को छोड़ जिंदगी का रास्ता पकड़ लिया है। यह है आर्गेनिक फार्मिंग यानी जैविक खेती, जहां रासायनिक खादों और जहरीले तत्वों का प्रवेश मना है। यह ऐसे खेत हैं जहां धरती मां रासायनिक खादों के चाबुक खाकर नहीं, बल्कि अपनी स्वाभाविक खुराक पाकर हरा सोना उगाती है। आज दुनिया भर के फैमिली स्टोर्स और मेगा माल्स में आर्गेनिक उत्पाद बिकते हैं; अंतरराष्ट्रीय होटल समूह अपनी मेन्यू लिस्ट में इनका जिक्र करते हैं और अब कानपुर के निजी फार्म हाउसों में इस पर खूब प्रयोग चल रहे हैं।
सरसौल में सुदर्शन कृषि फार्म में जैविक खाद के प्रयोग से गेहूं की उपज लेने वाले शम्मी मल्होत्रा कानपुर फ्लोरिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। शम्मी कहते हैं, ''मैंने अपने अनुभव से पाया है कि जैविक खाद से तैयार अनाज और सब्जियों में प्राकृतिक मिठास होती है, इसलिए मैंने इसे आजमाने का फैसला किया। फूलों पर प्रयोग के बाद अब मैं आर्गेनिक अनाज को घरेलू और परिचितों के इस्तेमाल के लिए उगा रहा हूं और यह अच्छा अनुभव है।
अब स्थानीय किसानों के साथ अपने इन अनुभवों को बाँटने के लिए शम्मी सीएसए के कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से कार्यशालाएं भी आयोजित करवा रहे हैं। 
शम्मी की ही तरह फ्लोरल शॉप कली कुंज के सुनील तिवारी इस तकनीक का प्रयोग गुलाब पर कर चुके हैं और नतीजे उत्साहवर्धक रहे, वे कहते हैं कि इस फूल का प्रयोग उपहार के साथ गुलाबजल और गुलकंद के लिए भी होता है। इसलिए मैंने देसी गुलाब के लिए अपने उत्पादक से जैविक खाद ही आजमाने को कहा। सुनील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उनके उत्पादक ने उन्हें सुनहरे शहद की एक बड़ी बोतल यह कहते हुए भेंट की कि, ''यह प्राकृतिक गुलाब के प्रति आकृष्ट हुई मधुमक्खियों की भेजी सौगात है।
सुनील इस छोटी सी घटना को एक सबक के रूप में देखते हैं, ''सूखी पत्तियों और गोबर-भूसे की मिश्रित कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट प्लांट और प्राकृतिक ढंग से धरती पर दबाव दिए बिना उपज का यह तरीका सस्ती रासायनिक खादों की तुलना में महंगा पड़ता है, लेकिन लंबे समय में यह धरती की उस उर्वरा शक्ति और जैव विविधता को लौटा देता है, जो रासायनिक खादों के कारण क्षीण हो चुकी थी!'