उत्तर भारत में इन दिनों रामलीला की धूम है। न केवल जगह-जगह रामलीला का मंचन हो रहा है, बल्कि कुछ रामलीला समितियां तो अब इंटरनेट द्वारा इसका दुनिया भर में सीधा प्रसारण भी कर रही हैं। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों का आनंद लेने भारत आए कई विदेशी खेलप्रेमी न केवल राजधानी दिल्ली में, बल्कि कुमायूँ और रामनगर-वाराणसी तक पहुँच कर भगवान राम के जीवनचरित्र का मंचन देख रहे हैं।
रामनगर से शुरुआत
क्या तुम जानते हो कि मंच पर रामलीला की शुरुआत कब हुई थी? कहा जाता है कि इसकी शुरुआत वर्ष 1621 में रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की प्रेरणा से हुई और आयोजक थे तत्कालीन काशी नरेश। इसी साल काशी के अस्सीघाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने एक नाटक के रूप में रामलीला का विमोचन किया था। इसके बाद काशी नरेश ने हर साल रामलीला करवाने का संकल्प लिया और इसके लिये रामनगर में रामलीला की भव्य प्रस्तुति करवाई। रामनगर की विश्वप्रसिद्ध रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है।
शरदपूर्णिमा पर समापन
कल दशहरा है और अधिकतर लोग यही मानते हैं कि इस दिन भगवान राम द्वारा रावण के वध और इसके पुतले में आग लगाए जाने के साथ रामलीला समाप्त हो जाती है। ऐसा नहीं है भोलूराम, दरअसल रामलीला विजयदशमी के पाँच दिन बाद अर्थात शरदपूर्णिमा तक चलती रहती है। हाँ, यह बात और है कि तब इसका मंचन विशाल स्टेज पर न होकर किसी मंदिर अथवा धर्मशाला के भीतर भक्तों के बीच हो रहा होता है। इसका समापन शरदपूर्णिमा की चाँदनी रात में (जिसे हिंदुओं में बहुत पवित्र माना जाता है) रामलीला के पात्रों को खीर खिलाकर होता है। इस दिन रोज की चटख पोशाकों की जगह सभी पात्र दूधिया सफेद कपड़ों में होते हैं और यह दृश्य देखते ही बनता है।
अलग-अलग हैं रंग
'कोस-कोस पर बानी बदले, सात कोस पर पानी' की तर्ज पर भारत के अलग-अलग इलाकों में रामलीला के अलग-अलग रंग है। तुम अयोध्या की रामलीला की तुलना कुमायूँ की रामलीला से नहीं कर सकते और दिल्ली में ही लालकिला की रामलीला और श्रीराम भारतीय कला केंद्र की रामलीला के मंचन में बहुत अंतर है। यह तो बात हुई भारत की, विदेशों में होने वाली रामलीलाओं के रंग तो और भी निराले हैं।
भारत के बाहर रामलीला
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते है, जिनसे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। इस क्षेत्र के विभिन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रूप हैं। इन्हें मुख्य रूप से दो वगरें 'मुखौटा रामलीला' और 'छाया रामलीला' में विभाजित किया जा सकता है। इंडोनेशिया और मलेशिया में खेली जाने वाली लाखोन, कंपूचिया की ल्खोनखोल तथा म्यांमार में मंचित होने वाली यामप्वे मुखौटा रामलीलाओं के उदाहरण हैं। मुखौटों के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को थाईलैंड में खौन कहा जाता है। पुतलियों की छाया के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है। इसमें जावा तथा मलेशिया की वेयाग और थाईलैंड की नंग काफी मशहूर हैं!
Thursday, October 28, 2010
Tuesday, September 8, 2009
गड्डी जांदी ए छलांगा मारदी
एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते ट्रक ड्राइवरों के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं
पहली निगाह में इनमें रोमांस का कोई तत्व नहीं दिखता; विशालकाय बॉडी और धुँआ छोड़ते हुए घरघराते इंजन में प्रेमगीत की लय ढूंढऩा लगभग असंभव लगता है, लेकिन 'कश्मीर की कली' से लेकर 'गदर' तक कई बॉलीवुड फिल्मों में मुहब्बत का सफर ट्रकों के पहियों पर ही तय हुआ है। आप इन्हें नफरत कर सकते हैं या पसंद (खासतौर पर जब आप ट्रांसपोर्टर या व्यापारी हों), लेकिन अनदेखा नहीं कर सकते। तब तो कतई नहीं, जब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र होने के नाते कानपुर की स्थिति 'ट्रक जंक्शन' जैसी है।
बाईपास, ट्रांसपोर्ट नगर, फजलगंज, रामादेवी, कालपी रोड या नवनिर्मित एन एच-2, कानपुर की सड़कों से लेकर घनी आबादी वाले व्यावसायिक - अर्द्ध द्व्यावसायिक क्षेत्रों तक ट्रकों की उपस्थिति सर्वव्यापी है। एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते इन 'ऑटोमोबाइल बंजारों' के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं।
ट्रक ड्राइवरों की बात करते ही सबसे पहले दिमाग में जो छवि कौंधती है, वह है लुंगी-कुर्ता और पगड़ी बाँधे हुए मजबूत बदन वाले सिखों की। उत्तर भारत के इस ठेठ हिंदी भाषी शहर कानपुर से लेकर महाराष्ट्र के सांगली तक में अगर आपको सड़क किनारे पंजाबी ढाबों की अटूट शृंखला मिलती है, तो वह इन्हीं के कारण है। समाजशास्त्री एस.एन सिंह कहते हैं, ''जिस तरह मुंबइया फिल्मों ने पूरे देश को हिंदी सिखा दी, उसी तरह पंजाबी ड्राइवरों की पसंदगी ने माँह (उड़द) की दाल और तंदूरी रोटियों को अखिल भारतीय भोजन बना दिया है। अगर आप फैमिली वीकएंड के लिए लांग ड्राइव और हाईवे फूड का लुत्फ उठाते हैं, तो इसके लिए शुक्रगुजार होना चाहिए इन ट्रक ड्राइवरों की पुरानी पीढिय़ों का, जिन्होंने इस ट्रेंड का बीज बोया था।''
यह जानना रोचक है कि पंजाबी ट्रक ड्राइवरों, और अब इस श्रेणी में सभी उत्तर भारतीय ट्रक ड्राइवर आते हैं, की पसंद का खाना सारे देश में मिलता है, लेकिन दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवर खाना कहाँ खाते हैं? पंजाबी ढाबों की तरह जगह-जगह उडुपि (दक्षिण भारतीय भोजनालय) मिलने दुर्लभ हैं, तो क्या दक्षिण भारतीय ड्राइवरों ने अपनी आदतों में परिवर्तन कर रसम की जगह राजमा अपना लिया है? नौबस्ता बाईपास के पास ठहरते दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवरों से मिलिए और जवाब मिल जाएगा। कोट्टïयम के एन.मुरली राजन कहते हैं, ''इल्लै (नहीं)!''
दरअसल वे और उनके साथी ट्रकों में अपनी आहार सामग्री लेकर चलते हैं और ठिकानों पर खुद ही खाते-पकाते हैं।
महीनों तक घर-परिवार से दूर रहते इन ट्रक ड्राइवरों को भोजन-पानी उपलब्ध कराना आज ढाबा संचालकों के लिए बड़ा कारोबार बन चुका है तो वहीं इनके मनोरंजन की आवश्यकता ने लोकसंगीत कंपनियों की पौ-बारह कर दी है। एक ट्रक आपरेटर पंचानन राय कहते हैं, ''भोजपुरी संगीत को बढ़ावा देने वालों में सबसे बड़ी संख्या पूर्वांचल के ट्रक ड्राइवरों की है। लंबे सफर में यही एक चीज है, जो उनको अनजानी जगहों पर भी अपनी मिट्टी से जोड़े रहती है। यह बात अलग है कि फौरी मनोरंजन के लिए कई ड्राइवर मसालेदार गाने सुनना पसंद करते हैं, संभवत: भोजपुरी लोकसंगीत कैसेटों में द्विअर्थी गीतों की बाढ़ का यह एक बड़ा कारण है।''
यह घर से दूर घर का एहसास पाने की छटपटाहट ही है, जो ट्रक ड्राइवरों को अपने ट्रकों को कला के नमूनों में बदल देने को मजबूर करती है। अच्छी बात यह है कि अधिकांश ट्रक मालिक इस पर कोई एतराज नहीं करते। ट्रकों की सजावट में पंजाबी ट्रक विश्व में दूसरे नंबर पर हैं, बीबीसी वल्र्ड की एक प्रस्तुति इनके निकटतम पड़ोसी पाकिस्तानी ट्रकों को साज-सज्जा में विश्व में नंबर एक बताती है। पंजाबी ट्रकों को देखिए तो सही, जिन पर रंग-बिरंगे पैटर्न, फूल-पत्ती, मोर, शेर और कई बार पीछे के फट्टों पर सिर पर हाथ धर उदास बैठी एक ठेठ पंजाबी युवती की झलक दिखती है। ऐसा लगता है कि बाजार में मौजूद हर सजावटी चीज, इनमें काले-लाल परांदे जरूर जोड़ लीजिए, से शृंगार करके यह ट्रक सफर पर नहीं-शादी पर जा रहे हैं। हूँ, आपके मन में जलन हो रही है तो जरा पीछे देखिए। यहाँ 'हार्न प्लीज-ओके' के साथ जलने वालों के लिए पहले ही लिख रखा गया है 'बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला!'
Monday, September 7, 2009
गेमिंग का नया अंदाज दीवाना बना दे
कानपुर में एफ 123 ने अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ उठा रहे हैं भारत भर के गेमिंग फैन्स
कारों की कलाबाजियाँ हों या केकड़ों की कुटाई, कल्पना की हर उड़ान यहाँ आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रियैलिटी) का रूप ले लेती है। एक तरफ डिजिटल कंप्यूटर गेम्स की मेगा स्क्रीन्स पर बैकग्राउंड टेक्सास से लेकर टोक्यो तक का माहौल बना देते हैं, वहीं फोटो वेंडिंग मशीन बात की बात में आपका ऐसा स्केच तैयार कर देती है, जिसमें आप कानपुर में बैठे-बैठे बिग बेन, एफिल टॉवर, इजिप्शियन पिरामिड्स और भी न जाने कहाँ-कहाँ मौजूद दिख सकते हैं। वर्चुअल रियैलिटी से अलग हकीकत में उतरना चाहते हैं तो सवार हो जाइए टक्करें मारती बंपर कारों पर और अपने हाथों का हुनर आजमाइए हॉट फ्लैश पर। मुकद्दर ने साथ दिया तो आप वेंडिंग मशीन्स से ढेर सारी चॉकलेट्स और सॉफ्ट ट्वाय के साथ मुस्कराते हुए घर लौट सकते हैं।
मनोरंजन की यह महफिल सजी है रेव-मोती स्थित एफ 123 में और इसमें दम है आपको दीवाना बनाने का। आज मनोरंजन एक बड़ा उद्योग है और इस क्षेत्र में गेमिंग जोन की बड़ी खिलाड़ी गैलेक्सी इंटरटेनमेंट कारपोरेशन लिमिटेड मुंबई, दिल्ली, नागपुर, इंदौर, बंगलुरु, नोयडा, अहमदाबाद, कोयंबटूर, मंगलौर, सूरत और आगरा में एफ 123 (फैमिली-फ्रैंड्स-फन) ब्रांड नेम के रूप में धूम मचा रही है। पैंटालून रिटेल्स इंडिया लिमिटेड की इस सहायक कंपनी ने कानपुर में भी अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ शेष भारत के गेमिंग फैन्स उठा रहे हैं।
दक्षिण एशिया की इस सबसे बड़ी पारिवारिक मनोरंजन श्रंखला ने कानपुर में रेव मोती के द्वितीय तल पर इंटरएक्टिव कंप्यूटर गेम्स और इनडोर खेलों का स्थायी मेला सा सजा दिया है। कानपुर में इसके यूनिट मैनेजर धीरज गुलाटी बताते हैं, ''एफ 123 का उद्देश्य कानपुराइट्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन अनुभव देना है। आप यहाँ वास्तविक बंपर कार राइड से लेकर वर्चुअल कार रेसिंग तक का मजा ले सकते हैं। हम कानपुर में दुनिया भर में युवाओं और किशोरों के बीच लोकप्रिय हॉट फ्लैश (एयर हॉकी), वर्चुअल हार्स राइडिंग, वर्चुअल बाइकिंग से लेकर बच्चों के लिए पिक ए टैडी और बीट द क्रैब जैसे रोमांचक और मनोरंजक गेम्स लेकर आए हैं।''
...वो कागज की किश्ती
हर किसी के भीतर छिपा है बचपन। यकीन नहीं आता तो याद कीजिए अपने मैजिकल मोमेंट्स को, जिनमें उम्र के बंधन तोड़ कर की गई कुछ बचकानी हरकतें जरूर शामिल होंगी
सैकड़ों कर्मचारियों वाली फैक्ट्री के मालिक। सफल व्यापार। सामाजिक रूप से सम्मानित। जीवन के हर मोर्चे पर जीत। अकूत धन। मतलब सुख-सुविधा और संपन्नता भरा जीवन। सब कुछ होने के बावजूद भी कभी-कभी लगता है कि हम कुछ मिस कर रहे हैं। जी हां, उम्र के इस पड़ाव पर हम जिस चीज को सबसे ज्यादा मिस करते हैं वह हमारा बचपन और उससे जुड़ी यादें या फिर वह जिसे हम नहीं कर पाए होते हैं!
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की किश्ती, वो बारिश का पानी..., जगजीत सिंह की गायी यह गजल हमें उन यादों की ओर ले जाती है जिन्हें तेज दौड़ती जिंदगी की आंधी अपने साथ उड़ा ले गयी होती है। रिमझिम बरसात का मौसम, सावन के झूले, तीज का त्योहार, नाग पंचमी का मेला, गुडिय़ा, रक्षाबंधन, दशहरा-दीवाली; और इसी के साथ इन त्योहारों से जुड़ी यादों में गुम हो कर हम फिर समय के उसी दौर में लौट जाना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि हम भले ही सामाजिक रूप से कितने स्थापित हों, सफलता के शिखर पर रहें, नामी-गिरामी हों, धन-दौलत-यश वाले हों, इन्हीं यादों के चलते कहीं न कहीं, कभी न कभी; उम्र, सफलता, पद और रुतबे के बंधनों को तोड़ कर मन बचपन की उन सुनहरी यादों के साथ उन्हीं हरकतों को करने का होता है, जिन्हें वक्त की धूल ने ढंक लिया होता है।
आप अपने बच्चों द्वारा अपनी गुडिय़ा के लिए आयोजित पार्टी में उनसे ज्यादा उल्लास के साथ जुटते हैं, बच्चों के लिए खिलौने खरीदते समय उनकी (बच्चों) चाहत से विपरीत आप अपनी पसंद का ही खिलौना खरीदते हैं (इसके पीछे यह बहाना काम करता है कि यह खिलौना तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता है), पार्क में बच्चों के साथ आप भी घास पर लोटने लगते हैं और गली के मोड़ पर गुजरते हुए बच्चों के साथ कंचे खेलने लगते हैं। बारिश के बहते पानी को देख पुरानी कॉपी-किताबों के नहीं तो अपनी डायरी के पन्नों से ही उसमें नाव बना कर डालते हैं तो कभी इन पन्नों से हवाई जहाज बना कर उड़ाते हैं।
आज यह सर्वविदित तथ्य है कि बच्चों के खिलौनों की खरीददारी में बच्चों से ज्यादा उत्सुकता माता-पिता दिखाते हैं। दुकान पर खरीददारी के वक्त यह माता-पिता ही हैं जो बच्चे से पहले किसी खिलौने से जी भर कर खेलते हैं और फिर खरीदते हैं। गाडिय़ों को दौड़ाते हैं, बंदूक से गोली चलाते हैं और टेडी बियर को सहलाते हैं और वही खिलौना खरीदते हैं जो (बच्चे को नहीं) उन्हें पसंद होता है।
शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल के मालिक सुमित मखीजा इस बारे में कहते हैं, ''हर किसी के भीतर बचपना और बचपन से जुड़ी यादें जीवन भर बनी रहती हैं। मन की अन्य भावनाओं की तरह ही यह भी कभी न कभी किसी न किसी रूप में बाहर भी निकल आती हैं। पिछले दिनों मैं दो दोस्तों के साथ हिल स्टेशन पर गया था। शाम को घूम कर लौटते समय रास्ते में एक बारात जा रही थी, बस बारात को देखते ही हम तीनों को शरारत सूझ गयी और हमने 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज पर बारात में डांस करना शुरू कर दिया। काफी देर से हमें जम कर नाचते देख बारातियों को हम पर शक होने लगा तो हम धीरे से वहां से खिसक आए।''
बचपन और इससे जुड़ी यादें लोगों को इतनी लुभाती है कि बाजार पर भी इसका जादू साफ दिखाई देता है। आज कई विज्ञापनों में बच्चों और बचपने से जुड़ी यादों को इस तरह से दिखाया जाता है कि उस कंपनी का उत्पाद बिक्री की नयी ऊंचाइयों को छूने लगता है। जिस समय आप टीवी पर एक मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी का बारिश में भीगते हुए बच्चे का अपने पिता को फोन करना और पिता का बचपन की यादों में डूब जाना देख रहे होते हैं; उसी समय देश में कहीं एक नया व्यक्ति उस कंपनी का उपभोक्ता बन रहा होता है। 'जी ललचाए रहा न जाए' या फिर 'जब मैं छोटा बच्चा था, गोली खाकर जीता था' पंच लाइन वाले विज्ञापन तो आपको याद ही होंगे।
बचपना हर किसी के भीतर होता है और इसकी यादें हर समय बसी रहती हैं। आज भी जगजीत सिंह के कंसर्ट में सबसे ज्यादा फरमाइश यदि किसी गजल की होती है तो 'वह यह दौलत भी ले लो' ही है। यदि मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने बचपन की यादों पर आधारित 'ईदगाह' नामक कहानी गढ़ी थी, तो यकीन मानिए हर आदमी के दिल में एक ईदगाह बसती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हैं तो भी इसीलिए कि कहीं न कहीं यह लेख आपको बचपन की सुनहरी यादों को ताजा करवा रहा है। ऐसा नहीं है क्या?
Monday, June 8, 2009
कानपुर के कोतवाल
पनकी हो या पुलिस चौकियां, शहर में हर कहीं दिखते हैं हनुमान मंदिर
इसे लोगों की श्रद्धा कहा जाए या महज संयोग, कि संकट मोचन हनुमान लगभग 48 लाख की आबादी वाले इस शहर के 'दैवी कोतवाल' बने हुए हैं। शहर में छोटे-बड़े मंदिरों की संख्या हजारों में है, लेकिन भौगोलिक स्थिति में नजर डालें तो रामभक्त हनुमान हर मुहल्ले और चौराहे पर विराजे हैं।
कानपुर के हर छोर पर संकट मोचन के प्रतिष्ठित मंदिर हैं, जहाँ पर यहाँ के निवासी ही नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों से आये लोगों की आस्था नमन करती है। इनमें आप शोभन गढ़ी, पनकी, जी. टी. रोड स्थित रुमावाले हनुमान, गोल चौराहे के निकट स्थित दक्षिणेश्वर तथा सत्ती चौरा के सालासार वाले बालाजी और किदवई नगर वाले हनुमान मंदिर को गिन सकते हैं। मंदिर छोटा हो या बड़ा, यह भी चमत्कार की बात है कि शहर से जुड़े हर पुलिस स्टेशन और चौकी में हनुमान जी प्रतिष्ठित हैं।
लोग जब भी कोई नया वाहन खरीदते हैं तो सबसे पहले उनकी गाड़ी संकट मोचन की चौखट की ओर दौड़ पड़ती है जहाँ उनका विश्वास टिका है, वह जगह शोभन हो या पनकी। हनुमान जी के इन दरबारों में प्रतिदिन सुबह से ही जयकारे गूंजने लगते हैं जिसका सिलसिला देर रात तक चलता है लेकिन मंगलवार, शनिवार के दिन यहाँ बाहर से आने वाले भक्तों की संख्या हजारों में होती है। 22 वर्षों से पनकी मंदिर में प्रतिदिन मत्था टेकने आ रहे आजाद नगर निवासी सुरेश गुप्ता इस बारे में कहते हैं, ''यह वह दरबार है जहाँ हर मनोकामना पूर्ण होती है। सरकार तो सिर्फ भाव के भूखे हैं, मन में विश्वास है तो यहाँ सब कुछ है। शहर से बाहर हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा सुबह संकट मोचन दर्शन मेरा पहला काम है।' प्रसाद विक्रेता राम किशोर बताते हैं ''मंगल और शनिवार को यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। सुबह से शाम तक 20-25 हजार लोग दर्शन कर जाते हैं। औसत निकालें तो यहाँ 15 कुंतल से अधिक प्रसाद चढ़ जाता है जबकि बुढ़वा मंगल जैसे पर्वों में अन्य जिलों से आये भक्तों की भीड़ 70 से 80 हजार की संख्या में होती है।'
इस दिन सुबह से ही लम्बी लाइन दर्शन की प्रतीक्षा में लग जाती है। इस बारे में और जानकारी देते हुए दक्षिणेश्वर मंदिर के पुरोहित अरविन्द शुक्ला कहते हैं, ''कानपुर के कोतवाल तो हनुमान जी ही हैं। वह चारों ओर से शहर की रक्षा कर रहे हैं, वैसे भी कलयुग में इन्हें सर्वाधिक पूज्य होने का आशीर्वाद मिला है।' वह कहते हैं कि यहाँ दिन भर दर्शन करने वालों के आने का क्रम बना रहता है।
परीक्षा के दिन हों या इंटरव्यू की घड़ी, युवाओं में संकट मोचन के प्रति अधिक आस्था देखी जा सकती है। विश्वास के साथ की गई याचना त्वरित स्वीकार होती है। इन दरबारों में आस्था और विश्वास से झुके युवाओं के मस्तक लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खारिज कर देते हैं कि 'आज का युवा भक्ति और उपासना से भटक गया है' क्योंकि नगरवासियों के लिए हनुमान जी यदि कानपुर के कोतवाल हैं तो युवाओं के लिए 'कलयुग की सुप्रीम कोर्ट!'
लागे सब कुछ नया नया
उत्तर भारत में मेडिकल प्रिपरेशन के लिए खास पहचान रखने वाली कोचिंग मंडी भी क्या अंधविश्वास की चपेट में है? आखिर क्या वजह है कि यहाँ मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से ही होती है?
''मुझे यह तो पता था कि मेडिकल की तैयारी कराने वाली सबसे अच्छी कोचिंग्स कानपुर में हैं, लेकिन मेरे लिए यह शहर एकदम नया था। पड़ोसी रामनाथ चाचा कानपुर में नौकरी करते हैं। वह छुट्टी में गाँव आये तो उन्होंने बताया कि कानपुर के कोचिंग जोन में जिनके नाम के आगे न्यू लगा हो तो समझ लेना, वह मेडिकल की कोचिंग है'' बताते हैं बस्ती के सौनासी गांव से कानपुर में मेडिकल इंट्रैंस एग्जाम की तैयारी करने आये उमेश कुमार।
काकादेव, कानपुर की मेडिकल इंट्रैंस कोचिंग्स के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया देने वाले उमेश कुमार इकलौते स्टूडेंट नहीं हैं। अब तो बाहर से मेडिकल की तैयारी करने के लिए शहर आने वाले हर स्टूडेंट के लिए 'न्यू' का अर्थ मेडिकल कोचिंग हो गया है। शिक्षा के बाजार में जिन कोचिंग्स की पहचान है, उनकी बात छोड़ दे तो भी नई खुलने वाली ज्यादातर कोचिंग्स के नाम की शुरूआत 'न्यू' से ही देखने को मिलती है।
मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम के आगे 'न्यू' लगाने के बारे में कोचिंग संचालकों की अपनी-अपनी प्रतिक्रिया है। न्यू लाइट कोचिंग के संचालक डॉ. एस.पी. सिंह कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि लोग न्यू शब्द को कैप्चर क्यों कर रहे हैं? वैसे मैं बता दूं कि जब मैंने कोचिंग प्रारंभ करने की योजना बनाई थी तो हमारे सीए ने हमसे कहा था, नाम थोड़ा यूनिक रखना। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तभी मुझे हाईस्कूल में पढ़ी गई न्यू लाइट ऑफ जनरल इंग्लिश की याद आई और मैंने कोचिंग का नाम न्यू लाइट रख दिया। अब तो हर मेडिकल कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से हो रही है तो इसका कारण आप यह समझें कि यह मात्र कंफ्यूजन क्रियेट करने के लिए है।''
न्यू स्पीड के संचालक रोहित अवस्थी कहते हैं, ''मैंने तो इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं। हां यह जरूर कहूंगा कि इसकी मुख्य वजह आप सिर्फ परंपरा का निर्वहन मान लें, इसलिए जो भी नया संस्थान शुरू होता है उसके नाम के आगे न्यू लगा होता है। इसमें किसी के नाम को कॉपी करना या कोई अंधविश्वास जैसी बात नहीं है।''
न्यू टैक कोचिंग में बायोलॉजी पढ़ाने वाले शिक्षक के.के. गुप्ता कहते हैं, ''जी हाँ, इसके पीछे का मूल कारण अंधविश्वास है। लखनऊ में न्यू स्टैण्डर्ड नाम की काफी पुरानी मेडिकल कोचिंग है, जो काफी सक्सेसफुल रही है। निश्चित रूप से इसी धारणा के चलते लोग यहां भी सक्सेस पाने लिए न्यू शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।''
न्यू रेज कोचिंग के संचालक डॉ. विजय का मानना है कि न्यू शब्द कानपुर में मेडिकल कोचिंग की पहचान बन गया है, इसलिए लोग इसे सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, ''वैसे भी न्यू शब्द किसी भी चीज को समय के साथ अपडेट करते हुये नवीनता प्रदान करता है। बस यही वजह है कि अक्सर किसी उत्पाद, शॉप या एजेंसी के नाम के आगे न्यू लगा मिल जाता है। इसी धारणा ने मेडिकल कोचिंग संचालकों को भी न्यू लगाने के लिए प्रेरित किया है!''
न्यू का बड़ा नाम है
काकादेव की कोचिंग मंडी में न्यू की तलाश में दिखे कुछ कोचिंग्स के बोर्ड खुद कह देते हैं पूरी कहानी
- न्यू लाइट
- न्यू स्पीड
- न्यू रेज
- न्यू इरा
- न्यू टैक
- न्यू स्टेप
- न्यू राइट
- न्यू स्पेक्ट्रम
- न्यू नारायण
- न्यू ईरा
- न्यू स्ट्रीट
- न्यू इलाइट
मैजिक ऑफ मेंहदी
युवाओं ने चढ़ाया परंपरागत मेंहदी को आधुनिकता का रंग और अब पारंपरिक डिजाइनों की जगह ले रहे हैं फंकी पैटर्न
शादी की खरीददारी पर निकलीं सॉफ्टवेयर इंजीनियर दीपाली की लिस्ट में नामी और मंहगे सौंदर्य उत्पादों के साथ ही मेंहदी का नाम भी लिखा था और शादी की पहली रस्म से दो दिन पहले से वह मेंहदी दीपाली ही नहीं, घर आईं सभी महिलाओं के हाथों पर खुशियों भरा रंग बिखेर रही थी। जी हां, खुशियां और मेंहदी। इन्हें आप एक दूसरे का पर्याय कह सकते हैं। घर में शहनाई गूंजने वाली हो या फिर कोई आयोजन या फिर कोई त्योहार, बेटी से लेकर मम्मी तक चाय का पानी, नींबू, शक्कर, कत्था, कॉफी सरीखी चीजों का जुगाड़ करने के साथ ही हाथों में मेंहदी की कटोरी या कोन थामे, इसे लगाने वाले की तलाश में घूमतीं नजर आ जाती हैं।
खुशियों की सौगात समेटे खुशरंग हिना के गहरे रंग की ख्वाहिश सभी महिलाओं-युवतियों को होती है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और बदलते समय के साथ मेंहदी नए रूप में नजर आ रही है। युवाओं ने मेंहदी को नया फैशन स्टेटमेंट बना दिया है। सगाई, शादी, त्योहार या पार्टी की बात जाने दें, अब तो रोज डे, कालेज डे, फेयरवेल पार्टी, वैलेंटाइन डे सरीखे आयोजन भी लड़कियों के लिए मेंहदी लगाने के लिए उचित मौके होने लगे हैं।
नवीन मार्केट में मेंहदी लगाने वाले विकास बताते हैं, ''शादियों की बात जाने दें, अब तो छोटे मोटे अवसरों पर भी लड़कियां मेंहदी लगवाती हैं। आज अन्य फैशनेबल वस्तुओं की तरह लड़कियां मेंहदी में भी नई डिजाइनों की मांग करने लगी हैं।' इसके परिणामस्वरूप मेंहदी की परंपरागत कलश, डोली, मोर, आम, तोता, स्वास्तिक, फूल, पत्ती और बिंदुओं वाली डिजाइनों का स्थान फंकी पैटर्न और आकर्षक डिजाइनों ने ले लिया है। मेंहदी के मिक्स एण्ड मैच व फ्युजन पैटर्न काफी चलन में हैं। इनके अंतर्गत अरेबिक, मारवाड़ी, इंडियन और ब्लैक आउट लाइन्स युवतियों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। भावी पति का नाम डिजाइन के बीच लिखवाना मेंहदी में नया ट्रेंड है।
स्कूल की फेयरवेल पार्टी के लिए ड्रेस फाइनल करते समय क्लास-12 की स्टूडेंट सुषमा गुप्ता मेंहदी को नहीं भूलतीं। पार्टी के लिए सुषमा ने दो दिन पहले से ही मेंहदी लगा ली थी, लेकिन उन्होंने मेंहदी हाथों पर नहीं बांहों पर लगाई थी। जी हाँ, युवाओं के बीच मेंहदी टैटू के रूप में परंपरागत शैली की बंदिश तोड़ नए नए पैटर्न और स्टाइल से प्रयोग की जा रही है। सिर्फ हाथ या बालों में प्रयोग की जाने वाली मेंहदी का दायरा शरीर के लगभग सभी अंगों तक हो गया है। जेन नेक्सट गल्र्स गला, कलाई, बांह, कमर, नाभि और कंधों पर मेंहदी टैटू का प्रयोग कर रही हैं।
बंदिशों को तोडऩे का दमखम रखने वाले युवा सामान्य मेंहदी के साथ ही डिफरेंट कलर्स और ग्लिटर वाली मेंहदी प्रयोग कर रहे हैं। लड़के भी इस होड़ में पीछे नहीं हैं। कट स्लीव की शर्ट या टी-शर्ट पहने लड़कों की बांहों और कलाइयों पर फंकी मेंहदी टैटू दिखना सामान्य बात हो चली है। मेंहदी से बांहों में शेर का चेहरा बनाए एमबीए स्टूडेंट प्रतीक मिश्रा कहते हैं, ''मेंहदी के टैटू ओरिजनल टैटू सरीखा लुक तो देते ही हैं, परमानेंट न होने कारण समय-समय पर आप मनचाही डिजाइन बनवा सकते हैं।'
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