Tuesday, September 8, 2009

गड्डी जांदी ए छलांगा मारदी


एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते ट्रक ड्राइवरों के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं

पहली निगाह में इनमें रोमांस का कोई तत्व नहीं दिखता; विशालकाय बॉडी और धुँआ छोड़ते हुए घरघराते इंजन में प्रेमगीत की लय ढूंढऩा लगभग असंभव लगता है, लेकिन 'कश्मीर की कली' से लेकर 'गदर' तक कई बॉलीवुड फिल्मों में मुहब्बत का सफर ट्रकों के पहियों पर ही तय हुआ है। आप इन्हें नफरत कर सकते हैं या पसंद (खासतौर पर जब आप ट्रांसपोर्टर या व्यापारी हों), लेकिन अनदेखा नहीं कर सकते। तब तो कतई नहीं, जब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र होने के नाते कानपुर की स्थिति 'ट्रक जंक्शन' जैसी है। 

बाईपास, ट्रांसपोर्ट नगर, फजलगंज, रामादेवी, कालपी रोड या नवनिर्मित एन एच-2, कानपुर की सड़कों से लेकर घनी आबादी वाले व्यावसायिक -  अर्द्ध द्व्यावसायिक क्षेत्रों तक ट्रकों की उपस्थिति सर्वव्यापी है। एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते इन 'ऑटोमोबाइल बंजारों'  के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं।
 
ट्रक ड्राइवरों की बात करते ही सबसे पहले दिमाग में जो छवि कौंधती है, वह है लुंगी-कुर्ता और पगड़ी बाँधे हुए मजबूत बदन वाले सिखों की। उत्तर भारत के इस ठेठ हिंदी भाषी शहर कानपुर से लेकर महाराष्ट्र के सांगली तक में अगर आपको सड़क किनारे पंजाबी ढाबों की अटूट शृंखला मिलती है, तो वह इन्हीं के कारण है। समाजशास्त्री एस.एन सिंह कहते हैं, ''जिस तरह मुंबइया फिल्मों ने पूरे देश को हिंदी सिखा दी, उसी तरह पंजाबी ड्राइवरों की पसंदगी ने माँह (उड़द) की दाल और तंदूरी रोटियों को अखिल भारतीय भोजन बना दिया है। अगर आप फैमिली वीकएंड के लिए लांग ड्राइव और हाईवे फूड का लुत्फ उठाते हैं, तो इसके लिए शुक्रगुजार होना चाहिए इन ट्रक ड्राइवरों की पुरानी पीढिय़ों का, जिन्होंने इस ट्रेंड का बीज बोया था।'' 

यह जानना रोचक है कि पंजाबी ट्रक ड्राइवरों, और अब इस श्रेणी में सभी उत्तर भारतीय ट्रक ड्राइवर आते हैं, की पसंद का खाना सारे देश में मिलता है, लेकिन दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवर खाना कहाँ खाते हैं? पंजाबी ढाबों की तरह जगह-जगह उडुपि (दक्षिण भारतीय भोजनालय) मिलने दुर्लभ हैं, तो क्या दक्षिण भारतीय ड्राइवरों ने अपनी आदतों में परिवर्तन कर रसम की जगह राजमा अपना लिया है? नौबस्ता बाईपास के पास ठहरते दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवरों से मिलिए और जवाब मिल जाएगा। कोट्टïयम के एन.मुरली राजन कहते हैं, ''इल्लै (नहीं)!''

दरअसल वे और उनके साथी ट्रकों में अपनी आहार सामग्री लेकर चलते हैं और ठिकानों पर खुद ही खाते-पकाते हैं।
महीनों तक घर-परिवार से दूर रहते इन ट्रक ड्राइवरों को भोजन-पानी उपलब्ध कराना आज ढाबा संचालकों के लिए बड़ा कारोबार बन चुका है तो वहीं इनके मनोरंजन की आवश्यकता ने लोकसंगीत कंपनियों की पौ-बारह कर दी है। एक ट्रक आपरेटर पंचानन राय कहते हैं, ''भोजपुरी संगीत को बढ़ावा देने वालों में सबसे बड़ी संख्या पूर्वांचल के ट्रक ड्राइवरों की है। लंबे सफर में यही एक चीज है, जो उनको अनजानी जगहों पर भी अपनी मिट्टी से जोड़े रहती है। यह बात अलग है कि फौरी मनोरंजन के लिए कई ड्राइवर मसालेदार गाने सुनना पसंद करते हैं, संभवत: भोजपुरी लोकसंगीत कैसेटों में द्विअर्थी गीतों की बाढ़ का यह एक बड़ा कारण है।'' 

यह घर से दूर घर का एहसास पाने की छटपटाहट ही है, जो ट्रक ड्राइवरों को अपने ट्रकों को कला के नमूनों में बदल देने को मजबूर करती है। अच्छी बात यह है कि अधिकांश ट्रक मालिक इस पर कोई एतराज नहीं करते। ट्रकों की सजावट में पंजाबी ट्रक विश्व में दूसरे नंबर पर हैं, बीबीसी वल्र्ड की एक प्रस्तुति इनके निकटतम पड़ोसी पाकिस्तानी ट्रकों को साज-सज्जा में विश्व में नंबर एक बताती है। पंजाबी ट्रकों को देखिए तो सही, जिन पर रंग-बिरंगे पैटर्न, फूल-पत्ती, मोर, शेर और कई बार पीछे के फट्टों पर सिर पर हाथ धर उदास बैठी एक ठेठ पंजाबी युवती की झलक दिखती है। ऐसा लगता है कि बाजार में मौजूद हर सजावटी चीज, इनमें काले-लाल परांदे जरूर जोड़ लीजिए, से शृंगार करके यह ट्रक सफर पर नहीं-शादी पर जा रहे हैं। हूँ, आपके मन में जलन हो रही है तो जरा पीछे देखिए। यहाँ 'हार्न प्लीज-ओके' के साथ जलने वालों के लिए पहले ही लिख रखा गया है 'बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला!'

Monday, September 7, 2009

गेमिंग का नया अंदाज दीवाना बना दे


कानपुर में एफ 123 ने अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ उठा रहे हैं भारत भर के गेमिंग फैन्स

कारों की कलाबाजियाँ हों या केकड़ों की कुटाई, कल्पना की हर उड़ान यहाँ आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रियैलिटी) का रूप ले लेती है। एक तरफ डिजिटल कंप्यूटर गेम्स की मेगा स्क्रीन्स पर बैकग्राउंड टेक्सास से लेकर टोक्यो तक का माहौल बना देते हैं, वहीं फोटो वेंडिंग मशीन बात की बात में आपका ऐसा स्केच तैयार कर देती है, जिसमें आप कानपुर में बैठे-बैठे बिग बेन, एफिल टॉवर, इजिप्शियन पिरामिड्स और भी न जाने कहाँ-कहाँ मौजूद दिख सकते हैं। वर्चुअल रियैलिटी से अलग हकीकत में उतरना चाहते हैं तो सवार हो जाइए टक्करें मारती बंपर कारों पर और अपने हाथों का हुनर आजमाइए हॉट फ्लैश पर। मुकद्दर ने साथ दिया तो आप वेंडिंग मशीन्स से ढेर सारी चॉकलेट्स और सॉफ्ट ट्वाय के साथ मुस्कराते हुए घर लौट सकते हैं।

मनोरंजन की यह महफिल सजी है रेव-मोती स्थित एफ 123 में और इसमें दम है आपको दीवाना बनाने का। आज मनोरंजन एक बड़ा उद्योग है और इस क्षेत्र में गेमिंग जोन की बड़ी खिलाड़ी गैलेक्सी इंटरटेनमेंट कारपोरेशन लिमिटेड मुंबई, दिल्ली, नागपुर, इंदौर, बंगलुरु, नोयडा, अहमदाबाद, कोयंबटूर, मंगलौर, सूरत और आगरा में एफ 123 (फैमिली-फ्रैंड्स-फन) ब्रांड नेम के रूप में धूम मचा रही है। पैंटालून रिटेल्स इंडिया लिमिटेड की इस सहायक कंपनी ने कानपुर में भी अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ शेष भारत के गेमिंग फैन्स उठा रहे हैं।

दक्षिण एशिया की इस सबसे बड़ी पारिवारिक मनोरंजन श्रंखला ने कानपुर में रेव मोती के द्वितीय तल पर इंटरएक्टिव कंप्यूटर गेम्स और इनडोर खेलों का स्थायी मेला सा सजा दिया है। कानपुर में इसके यूनिट मैनेजर धीरज गुलाटी बताते हैं, ''एफ 123 का उद्देश्य कानपुराइट्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन अनुभव देना है। आप यहाँ वास्तविक बंपर कार राइड से लेकर वर्चुअल कार रेसिंग तक का मजा ले सकते हैं। हम कानपुर में दुनिया भर में युवाओं और किशोरों के बीच लोकप्रिय हॉट फ्लैश (एयर हॉकी), वर्चुअल हार्स राइडिंग, वर्चुअल बाइकिंग से लेकर बच्चों के लिए पिक ए टैडी और बीट द क्रैब जैसे रोमांचक और मनोरंजक गेम्स लेकर आए हैं।''

...वो कागज की किश्ती


हर किसी के भीतर छिपा है बचपन। यकीन नहीं आता तो याद कीजिए अपने मैजिकल मोमेंट्स को, जिनमें उम्र के बंधन तोड़ कर की गई कुछ बचकानी हरकतें जरूर शामिल होंगी

सैकड़ों कर्मचारियों वाली फैक्ट्री के मालिक। सफल व्यापार। सामाजिक रूप से सम्मानित। जीवन के हर मोर्चे पर जीत। अकूत धन। मतलब सुख-सुविधा और संपन्नता भरा जीवन। सब कुछ होने के बावजूद भी कभी-कभी लगता है कि हम कुछ मिस कर रहे हैं। जी हां, उम्र के इस पड़ाव पर हम जिस चीज को सबसे ज्यादा मिस करते हैं वह हमारा बचपन और उससे जुड़ी यादें या फिर वह जिसे हम नहीं कर पाए होते हैं!

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की किश्ती, वो बारिश का पानी..., जगजीत सिंह की गायी यह गजल हमें उन यादों की ओर ले जाती है जिन्हें तेज दौड़ती जिंदगी की आंधी अपने साथ उड़ा ले गयी होती है। रिमझिम बरसात का मौसम, सावन के झूले, तीज का त्योहार, नाग पंचमी का मेला, गुडिय़ा,  रक्षाबंधन, दशहरा-दीवाली; और इसी के साथ इन त्योहारों से जुड़ी यादों में गुम हो कर हम फिर समय के उसी दौर में लौट जाना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि हम भले ही सामाजिक रूप से कितने स्थापित हों, सफलता के शिखर पर रहें, नामी-गिरामी हों, धन-दौलत-यश वाले हों, इन्हीं यादों के चलते कहीं न कहीं, कभी न कभी; उम्र, सफलता, पद और रुतबे के बंधनों को तोड़ कर मन बचपन की उन सुनहरी यादों के साथ उन्हीं हरकतों को करने का होता है, जिन्हें वक्त की धूल ने ढंक लिया होता है।

आप अपने बच्चों द्वारा अपनी गुडिय़ा के लिए आयोजित पार्टी में उनसे ज्यादा उल्लास के साथ जुटते हैं, बच्चों के लिए खिलौने खरीदते समय उनकी (बच्चों) चाहत से विपरीत आप अपनी  पसंद का ही खिलौना खरीदते हैं (इसके पीछे यह बहाना काम करता है कि यह खिलौना तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता है), पार्क में बच्चों के साथ आप भी घास पर लोटने लगते हैं और गली के मोड़ पर गुजरते हुए बच्चों के साथ कंचे खेलने लगते हैं। बारिश के बहते पानी को देख पुरानी कॉपी-किताबों के नहीं तो अपनी डायरी के पन्नों से ही उसमें नाव बना कर डालते हैं तो कभी इन पन्नों से हवाई जहाज बना कर उड़ाते हैं।

आज यह सर्वविदित तथ्य है कि बच्चों के खिलौनों की खरीददारी में बच्चों से ज्यादा उत्सुकता माता-पिता दिखाते हैं। दुकान पर खरीददारी के वक्त यह माता-पिता ही हैं जो बच्चे से पहले किसी खिलौने से जी भर कर खेलते हैं और फिर खरीदते हैं। गाडिय़ों को दौड़ाते हैं, बंदूक से गोली चलाते हैं और टेडी बियर को सहलाते हैं और वही खिलौना खरीदते हैं जो (बच्चे को नहीं) उन्हें पसंद होता है।

शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल के मालिक सुमित मखीजा इस बारे में कहते हैं, ''हर किसी के भीतर बचपना और बचपन से जुड़ी यादें जीवन भर बनी रहती हैं। मन की अन्य भावनाओं की तरह ही यह भी कभी न कभी किसी न किसी रूप में बाहर भी निकल आती हैं। पिछले दिनों मैं दो दोस्तों के साथ हिल स्टेशन पर गया था। शाम को घूम कर लौटते समय रास्ते में एक बारात जा रही थी, बस बारात को देखते ही हम तीनों को शरारत सूझ गयी और हमने 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज पर बारात में डांस करना शुरू कर दिया। काफी देर से हमें जम कर नाचते देख बारातियों को हम पर शक होने लगा तो हम धीरे से वहां से खिसक आए।''

बचपन और इससे जुड़ी यादें लोगों को इतनी लुभाती है कि बाजार पर भी इसका जादू साफ दिखाई देता है। आज कई विज्ञापनों में बच्चों और बचपने से जुड़ी यादों को इस तरह से दिखाया जाता है कि उस कंपनी का उत्पाद बिक्री की नयी ऊंचाइयों को छूने लगता है। जिस समय आप टीवी पर एक मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी का बारिश में भीगते हुए बच्चे का अपने पिता को फोन करना और पिता का बचपन की यादों में डूब जाना देख रहे होते हैं; उसी समय देश में कहीं एक नया व्यक्ति उस कंपनी का उपभोक्ता बन रहा होता है। 'जी ललचाए रहा न जाए' या फिर 'जब मैं छोटा बच्चा था, गोली खाकर जीता था' पंच लाइन वाले विज्ञापन तो आपको याद ही होंगे।
   
बचपना हर किसी के भीतर होता है और इसकी यादें हर समय बसी रहती हैं। आज भी जगजीत सिंह के कंसर्ट में सबसे ज्यादा फरमाइश यदि किसी गजल की होती है तो 'वह यह दौलत भी ले लो' ही है। यदि मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने बचपन की यादों पर आधारित 'ईदगाह'  नामक कहानी गढ़ी थी, तो यकीन मानिए हर आदमी के दिल में एक ईदगाह बसती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हैं तो भी इसीलिए कि कहीं न कहीं यह लेख आपको बचपन की सुनहरी यादों को ताजा करवा रहा है। ऐसा नहीं है क्या?