Monday, June 8, 2009

कानपुर के कोतवाल



पनकी हो या पुलिस चौकियां, शहर में हर कहीं दिखते हैं हनुमान मंदिर

इसे लोगों की श्रद्धा कहा जाए या महज संयोग, कि संकट मोचन हनुमान लगभग 48 लाख की आबादी वाले इस शहर के 'दैवी कोतवाल' बने हुए हैं। शहर में छोटे-बड़े मंदिरों की संख्या हजारों में है, लेकिन भौगोलिक स्थिति में नजर डालें तो रामभक्त हनुमान हर मुहल्ले और चौराहे पर विराजे हैं।
कानपुर के हर छोर पर संकट मोचन के प्रतिष्ठित मंदिर हैं, जहाँ पर यहाँ के निवासी ही नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों से आये लोगों की आस्था नमन करती है। इनमें आप शोभन गढ़ी, पनकी, जी. टी. रोड स्थित रुमावाले हनुमान, गोल चौराहे के निकट स्थित दक्षिणेश्वर तथा सत्ती चौरा के सालासार वाले बालाजी और किदवई नगर वाले हनुमान मंदिर को गिन सकते हैं। मंदिर छोटा हो या बड़ा, यह भी चमत्कार की बात है कि शहर से जुड़े हर पुलिस स्टेशन और चौकी में हनुमान जी प्रतिष्ठित हैं।
लोग जब भी कोई नया वाहन खरीदते हैं तो सबसे पहले उनकी गाड़ी संकट मोचन की चौखट की ओर दौड़ पड़ती है जहाँ उनका विश्वास टिका है, वह जगह शोभन हो या पनकी। हनुमान जी के इन दरबारों में प्रतिदिन सुबह से ही जयकारे गूंजने लगते हैं जिसका सिलसिला देर रात तक चलता है लेकिन मंगलवार, शनिवार के दिन यहाँ बाहर से आने वाले भक्तों की संख्या हजारों में होती है। 22 वर्षों से पनकी मंदिर में प्रतिदिन मत्था टेकने आ रहे आजाद नगर निवासी सुरेश गुप्ता इस बारे में कहते हैं, ''यह वह दरबार है जहाँ हर मनोकामना पूर्ण होती है। सरकार तो सिर्फ भाव के भूखे हैं, मन में विश्वास है तो यहाँ सब कुछ है। शहर से बाहर हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा सुबह संकट मोचन दर्शन मेरा पहला काम है।' प्रसाद विक्रेता राम किशोर बताते हैं ''मंगल और शनिवार को यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। सुबह से शाम तक 20-25 हजार लोग दर्शन कर जाते हैं। औसत निकालें तो यहाँ 15 कुंतल से अधिक प्रसाद चढ़ जाता है जबकि बुढ़वा मंगल जैसे पर्वों में अन्य जिलों से आये भक्तों की भीड़ 70 से 80 हजार की संख्या में होती है।'
इस दिन सुबह से ही लम्बी लाइन दर्शन की प्रतीक्षा में लग जाती है। इस बारे में और जानकारी देते हुए दक्षिणेश्वर मंदिर के पुरोहित अरविन्द शुक्ला कहते हैं, ''कानपुर के कोतवाल तो हनुमान जी ही हैं। वह चारों ओर से शहर की रक्षा कर रहे हैं, वैसे भी कलयुग में इन्हें सर्वाधिक पूज्य होने का आशीर्वाद मिला है।' वह कहते हैं कि यहाँ दिन भर दर्शन करने वालों के आने का क्रम बना रहता है।
परीक्षा के दिन हों या इंटरव्यू की घड़ी, युवाओं में संकट मोचन के प्रति अधिक आस्था देखी जा सकती है। विश्वास के साथ की गई याचना त्वरित स्वीकार होती है। इन दरबारों में आस्था और विश्वास से झुके युवाओं के मस्तक लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खारिज कर देते हैं कि 'आज का युवा भक्ति और उपासना से भटक गया है' क्योंकि नगरवासियों के लिए हनुमान जी यदि कानपुर के कोतवाल हैं तो युवाओं के लिए 'कलयुग की सुप्रीम कोर्ट!'

लागे सब कुछ नया नया


उत्तर भारत में मेडिकल प्रिपरेशन के लिए खास पहचान रखने वाली कोचिंग मंडी भी क्या अंधविश्वास की चपेट में है? आखिर क्या वजह है कि यहाँ मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से ही होती है?

''मुझे यह तो पता था कि मेडिकल की तैयारी कराने वाली सबसे अच्छी कोचिंग्स कानपुर में हैं, लेकिन मेरे लिए यह शहर एकदम नया था। पड़ोसी रामनाथ चाचा कानपुर में नौकरी करते हैं। वह छुट्टी में गाँव आये तो उन्होंने बताया कि कानपुर के कोचिंग जोन में जिनके नाम के आगे न्यू लगा हो तो समझ लेना, वह मेडिकल की कोचिंग है'' बताते हैं बस्ती के सौनासी गांव से कानपुर में मेडिकल इंट्रैंस एग्जाम की तैयारी करने आये उमेश कुमार।
काकादेव, कानपुर की मेडिकल इंट्रैंस कोचिंग्स के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया देने वाले उमेश कुमार इकलौते स्टूडेंट नहीं हैं। अब तो बाहर से मेडिकल की तैयारी करने के लिए शहर आने वाले हर स्टूडेंट के लिए 'न्यू' का अर्थ मेडिकल कोचिंग हो गया है। शिक्षा के बाजार में जिन कोचिंग्स की पहचान है, उनकी बात छोड़ दे तो भी नई खुलने वाली ज्यादातर कोचिंग्स के नाम की शुरूआत 'न्यू' से ही देखने को मिलती है। 
मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम के आगे 'न्यू' लगाने के बारे में कोचिंग संचालकों की अपनी-अपनी प्रतिक्रिया है। न्यू लाइट कोचिंग के संचालक डॉ. एस.पी. सिंह कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि लोग न्यू शब्द को कैप्चर क्यों कर रहे हैं? वैसे मैं बता दूं कि जब मैंने कोचिंग प्रारंभ करने की योजना बनाई थी तो हमारे सीए ने हमसे कहा था, नाम थोड़ा यूनिक रखना। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तभी मुझे हाईस्कूल में पढ़ी गई न्यू लाइट ऑफ जनरल इंग्लिश की याद आई और मैंने कोचिंग का नाम न्यू लाइट रख दिया। अब तो हर मेडिकल कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से हो रही है तो इसका कारण आप यह समझें कि यह मात्र कंफ्यूजन क्रियेट करने के लिए है।''
न्यू स्पीड के संचालक रोहित अवस्थी कहते हैं, ''मैंने तो इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं। हां यह जरूर कहूंगा कि इसकी मुख्य वजह आप सिर्फ परंपरा का निर्वहन मान लें, इसलिए जो भी नया संस्थान शुरू होता है उसके नाम के आगे न्यू लगा होता है। इसमें किसी के नाम को कॉपी करना या कोई अंधविश्वास जैसी बात नहीं है।''
न्यू टैक कोचिंग में बायोलॉजी पढ़ाने वाले शिक्षक के.के. गुप्ता कहते हैं, ''जी हाँ, इसके पीछे का मूल कारण अंधविश्वास है। लखनऊ में न्यू स्टैण्डर्ड नाम की काफी पुरानी मेडिकल कोचिंग है, जो काफी सक्सेसफुल रही है। निश्चित रूप से इसी धारणा के चलते लोग यहां भी सक्सेस पाने लिए न्यू शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।''
न्यू रेज कोचिंग के संचालक डॉ. विजय का मानना है कि न्यू शब्द कानपुर में मेडिकल कोचिंग की पहचान बन गया है, इसलिए लोग इसे सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, ''वैसे भी न्यू शब्द किसी भी चीज को समय के साथ अपडेट करते हुये नवीनता प्रदान करता है। बस यही वजह है कि अक्सर किसी उत्पाद, शॉप या एजेंसी के नाम के आगे न्यू लगा मिल जाता है। इसी धारणा ने मेडिकल कोचिंग संचालकों को भी न्यू लगाने के लिए प्रेरित किया है!''

न्यू का बड़ा नाम है

काकादेव की कोचिंग मंडी में न्यू की तलाश में दिखे कुछ कोचिंग्स के बोर्ड खुद कह देते हैं पूरी कहानी

  • न्यू लाइट
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मैजिक ऑफ मेंहदी


युवाओं ने चढ़ाया परंपरागत मेंहदी को आधुनिकता का रंग और अब पारंपरिक डिजाइनों की जगह ले रहे हैं फंकी पैटर्न

शादी की खरीददारी पर निकलीं सॉफ्टवेयर इंजीनियर दीपाली की लिस्ट में नामी और मंहगे सौंदर्य उत्पादों के साथ ही मेंहदी का नाम भी लिखा था और शादी की पहली रस्म से दो दिन पहले से वह मेंहदी दीपाली ही नहीं, घर आईं सभी महिलाओं के हाथों पर खुशियों भरा रंग बिखेर रही थी। जी हां, खुशियां और मेंहदी। इन्हें आप एक दूसरे का पर्याय कह सकते हैं। घर में शहनाई गूंजने वाली हो या फिर कोई आयोजन या फिर कोई त्योहार, बेटी से लेकर मम्मी तक चाय का पानी, नींबू, शक्कर, कत्था, कॉफी सरीखी चीजों का जुगाड़ करने के साथ ही हाथों में मेंहदी की कटोरी या कोन थामे, इसे लगाने वाले की तलाश में घूमतीं नजर आ जाती हैं।
खुशियों की सौगात समेटे खुशरंग हिना के गहरे रंग की ख्वाहिश सभी महिलाओं-युवतियों को होती है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और बदलते समय के साथ मेंहदी नए रूप में नजर आ रही है। युवाओं ने मेंहदी को नया फैशन स्टेटमेंट बना दिया है। सगाई, शादी, त्योहार या पार्टी की बात जाने दें, अब तो रोज डे, कालेज डे, फेयरवेल पार्टी, वैलेंटाइन डे सरीखे आयोजन भी लड़कियों के लिए मेंहदी लगाने के लिए उचित मौके होने लगे हैं।
नवीन मार्केट में मेंहदी लगाने वाले विकास बताते हैं, ''शादियों की बात जाने दें, अब तो छोटे मोटे अवसरों पर भी लड़कियां मेंहदी लगवाती हैं। आज अन्य फैशनेबल वस्तुओं की तरह लड़कियां मेंहदी में भी नई डिजाइनों की मांग करने लगी हैं।'  इसके परिणामस्वरूप मेंहदी की परंपरागत कलश, डोली, मोर, आम, तोता, स्वास्तिक, फूल, पत्ती और बिंदुओं वाली डिजाइनों का स्थान फंकी पैटर्न और आकर्षक डिजाइनों ने ले लिया है। मेंहदी के मिक्स एण्ड मैच व फ्युजन पैटर्न काफी चलन में हैं। इनके अंतर्गत अरेबिक, मारवाड़ी, इंडियन और ब्लैक आउट लाइन्स युवतियों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। भावी पति का नाम डिजाइन के बीच लिखवाना मेंहदी में नया ट्रेंड है।
स्कूल की फेयरवेल पार्टी के लिए ड्रेस फाइनल करते समय क्लास-12 की स्टूडेंट सुषमा गुप्ता मेंहदी को नहीं भूलतीं। पार्टी के लिए सुषमा ने दो दिन पहले से ही मेंहदी लगा ली थी, लेकिन उन्होंने मेंहदी हाथों पर नहीं बांहों पर लगाई थी। जी हाँ, युवाओं के बीच मेंहदी टैटू के रूप में परंपरागत शैली की बंदिश तोड़ नए नए पैटर्न और स्टाइल से प्रयोग की जा रही है। सिर्फ हाथ या बालों में प्रयोग की जाने वाली मेंहदी का दायरा शरीर के लगभग सभी अंगों तक हो गया है। जेन नेक्सट गल्र्स गला, कलाई, बांह, कमर, नाभि और कंधों पर मेंहदी टैटू का प्रयोग कर रही हैं।
बंदिशों को तोडऩे का दमखम रखने वाले युवा सामान्य मेंहदी के साथ ही डिफरेंट कलर्स और ग्लिटर वाली मेंहदी प्रयोग कर रहे हैं। लड़के भी इस होड़ में पीछे नहीं हैं। कट स्लीव की शर्ट या टी-शर्ट पहने लड़कों की बांहों और कलाइयों पर फंकी मेंहदी टैटू दिखना सामान्य बात हो चली है। मेंहदी से बांहों में शेर का चेहरा बनाए एमबीए स्टूडेंट प्रतीक मिश्रा कहते हैं, ''मेंहदी के टैटू ओरिजनल टैटू सरीखा लुक तो देते ही हैं, परमानेंट न होने कारण समय-समय पर आप मनचाही डिजाइन बनवा सकते हैं।'

Wednesday, June 3, 2009

बबुआ डॉलर भेज रहा है



सॉफ्टवेयर और आईटी सेक्टर में स्थानीय युवाओं को मिल रहे विदेशी अवसरों की बदौलत बदल रही है अभिभावकों की सोच और जीवनशैली

तीन साल पहले एल.टी.ए. की बदौलत पति के साथ हरिद्वार की यात्रा पर गईं श्रीमती कृष्णा दीक्षित के पास जीवन से संतुष्ट होने के पर्याप्त कारण थे। आखिरकार बैंक कर्मचारी पति के साथ वैवाहिक जीवन के 32 वर्षों में उन्होंने मसूरी से लेकर मदुरै तक लगभग उन सभी भारतीय पर्यटन स्थलों की यात्रा की थी, जिनकी कल्पना औसत मध्यवर्गीय परिवार कर सकता है, लेकिन 2008 की जनवरी ने उनकी जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ा दिया। इस महीने वे अपनी पहली यूएसए ट्रिप पर गईं (जो उनके जीवन की पहली विदेश यात्रा भी थी) और इसके लिए उन्हें अथवा पति सुशील को एक नया पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा।
नहीं, यह पैकेज उन्हें न ही किसी टूरिज्म प्रमोशन कंपनी ने दिया था और न ही उनकी लॉटरी लगी थी। वे तो अपने बड़े बेटे राघवेंद्र का 'फ्लैट सेट करने के लिए'  न्यूयार्क गईं थीं, जहाँ वह एक जर्मन इंडस्ट्रियल ट्रांसफार्मर कंपनी के अमेरिकी मुख्यालय में सिस्टम इंजीनियर है। सो, कभी पुखरायां के एक छोटे से गाँव से ब्याह कर कानपुर आईं कृष्णा सास-बहू के सीरियल्स और चटनी-पुलाव बनाने से ऊपर अब हॉलीवुड के फिल्म स्टूडियो और मस्टर्ड सॉस-फ्राइड राइस विद बेबीकार्न की बात भी कर लेती हैं। आज उनके एलबमों में पाँच सौ रुपए के कोडक कैमरा से खींची गई पुरानी तस्वीरों से लेकर सोनी साइबर शॉट की तस्वीरों के डिजिटल प्रिंट तक शामिल हैं। इटैलियन कटग्लास में लाइम स्क्वैश सर्व करती यह 'फॉरेन रिटर्न माँ'  राघवेंद्र की तारीफ करते हुए नहीं अघाती, ''श्रवणकुमार ने बंहगी में बिठा कर माँ-बाप को सारे तीर्थ करवाए थे और राघवेन्द्र हमको बोइंग में बिठा कर दुनिया दिखा दिए!''
कभी केरल और पंजाब में दिखने वाला डॉलर, दिरहम तथा रियाल का बहाव अब उत्तरप्रदेश की ओर घूम गया है और तकनीकी-शैक्षणिक रूप से समृद्ध कानपुर इसका बड़ा केंद्र सिद्ध हो रहा है। अगर 70' के दशक में पंजाब से कनाडा और यूएसए के लिए भारतीय अप्रवासियों की बड़ी संख्या कृषि श्रमिकों तथा छोटे उद्यमियों की थी; 80' के उत्तरार्ध में खाड़ी देशों के 'पेट्रो डॉलर' ने केरल के मिस्त्रियों-प्लंबरों और ड्राइवरों को आकर्षित किया था, तो 21वीं शताब्दी के शुरुआती छह वर्ष कंप्यूटर प्रोफेशनल्स और आईटी-आईटीईएस प्रोवाइडर्स के लिए यूएसए, यूरोप तथा फार ईस्ट की चाभी साबित हुए हैं।
क्या युवा प्रतिभाओं को विदेशी नौकरी के रूप में कानपुर की बड़ी हिस्सेदारी की बात कुछ बढ़ा-चढ़ा कर की जा रही है? फैक्ट्स और वर्क परफारमेंस के रूप में देखा जाए तो यह हिस्सा तो बंगलौर, हैदराबाद, मुंबई और एनसीआर के पास होना चाहिए, जहाँ सॉफ्टवेयर कंपनियों और बैक ऑफिस/कॉल सेंटर का व्यवसाय बड़े पैमाने पर है। इस बात को स्पष्ट करते हैं कंप्यूटर एजुकेशन इंस्टीट्यूट डाटा एक्सपर्ट के निदेशक दीपक शुक्ला, ''दरअसल, कानपुर में इन व्यवसायों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का पर्याप्त विकसित न होना ही कंप्यूटर ऑपरेशन्स में माहिर प्रतिभाओं के लिए वरदान बन गया है। स्थानीय युवा जानते हैं कि इन क्षेत्रों में कैरियर के लिए उन्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा। एक बार शहर से बाहर कदम पड़ा तो इनके लिए एनसीआर और न्यूयार्क एक बराबर है, लेकिन देश की तुलना में विदेशी आय का अंतर कई बार लाखों रुपए पड़ जाता है। स्थानीय स्तर पर सुविधाएं मिलने के कारण सॉफ्टवेयर और बैक ऑफिस हब कहलाने वाले भारतीय शहरों केे युवा बाहर निकलने की कुछ कम सोचते हैं जबकि कानपुर सरीखे शहरों के युवाओं का लक्ष्य ही होता है चलो अमेरिका!''
विदेश में वर्क परमिट की इस चाभी ने अगर कानपुर के कई युवाओं के लिए सुनहरे भविष्य का द्वार खोल दिया तो वहीं उनके द्वारा कमाई जा रही विदेशी मुद्रा यहाँ बसे अभिभावकों के लिए सुखद वर्तमान की गारंटी साबित हो रही है। आईआईटी के स्नातकों को मिलने वाले 25-50 लाख रुपए के औसत पैकेज को दरकिनार भी कर दें तो यूएसए में सामान्य कंप्यूटर प्रोफेशनल मासिक 3800 डॉलर तो कमा ही लेते हैं। विदेश के हिसाब से यह रकम बहुत बड़ी नहीं, लेकिन भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करते ही यह 1,71,000 प्रतिमाह हो जाती है और अगर कहीं यह नौकरी ब्रिटेन में हुई तो पाउंड से परिवर्तित रकम बनी 3,04,000। युवाओं द्वारा इस धनराशि का एक बड़ा हिस्सा बचत के रूप में भारत में बसे परिवार को भेज दिया जाता है और अभिभावक बन जाते हैं इस रकम का इस्तेमाल करने वाले फंड मैनेजर।
शहर में विदेशी नौकरी की स्वीकार्यता इस कदर बढ़ी है कि परिचितों के बीच हर तीसरे-चौथे घर में कोई न कोई बाहर बसे किसी रिश्तेदार का किस्सा सुनाने लगता है। कैलीफोर्निया में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत अजय तिवारी जानकारी देते हैं, ''यूएसए में बैचलर के लिए औसत 1200 डॉलर की रकम जीवन-यापन को काफी होती है। अगर कंपनी अच्छी है तो इसकी सुविधाएं ही इतनी अधिक होती हैं कि यह 1200 डॉलर भी आप अपनी खुशी के लिए खर्च कर डालते हैं।''  रामबाग में बसे परिवार को रुपए भेजने के लिए अजय सिटीबैंक एनआरआई मनीट्रांसफर स्कीम का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, ''भारतीय युवाओं में बचत की इस आदत को देखते हुए ऐसी कई फाइनेंशियल सर्विसेज अस्तित्व में आ गई हैं। आप भारत से जुड़ी कोई भी समाचार अथवा सूचनापरक वेबसाइट देखें, इनके विज्ञापन तुरंत पॉपअप हो जाते हैं।''
अजय का ही उदाहरण लें तो कैलीफोर्निया से कानपुर आया यह पैसा उनके परिवार की जीवनशैली बदल चुका है। यूएसए में 3-3 साल के दो वर्क परमिट रिन्युअल की बदौलत उनका रामबाग स्थित घर मध्यवर्गीय जीवनशैली को छोड़ उच्चमध्यवर्गीय अंदाज अपना चुका है। रामगंगा सिंचाई परियोजना में एलडीसी क्लर्क रहे रामबालक तिवारी बेटे की उपलब्धियां गिनाते हैं, ''उसकी वजह से घर में जेन से लेकर जेनरेटर तक आ गया।''
12 दिन की छुट्टी लेकर शहर आए अजय के लिए रिश्तों की लंबी सूची है लेकिन बात शायद सर्दियों तक ही जम पाएगी। वजह लड़कियों की खूबसूरती नहीं और दहेज का बिंदु तो यहाँ सिरे से नदारद है, अजय की जरूरत है, ''एक ऐसी लड़की जो कंप्यूटर प्रोफेशनल हो और वहाँ (यूएसए) में मेरे साथ काम कर सके।'' शादी-ब्याह के लिए जन्मपत्रियां मिलाने वाले संतोष शास्त्री भी इन 'एनआरके''  (नॉन रेजिडेंट कानपुराइट्स) दूल्हों में पनपे इस चलन की पुष्टि करते हैं, ''अच्छी कमाई करने वाले यह लड़के शादी तो माँ-बाप की मर्जी से ही करते हैं लेकिन शर्त यही है कि लड़की भी कंप्यूटर इंजीनियर हो और विदेश में रह सके। ऐसी लड़की मिल जाती है तो दहेज की माँग लगभग शून्य हो जाती है और बिस्वा-गोत्र की ऊँच-नीच भी नहीं रहती। कई बार लड़के की यह इच्छा पूरी करने के लिए खुद माँ-बाप वर्ग का बंधन तोड़ देते हैं।'' अच्छा ही है, जब बात कर्म की कुंडली मिलाने की हो तो जन्मकुंडली का अर्थ ही क्या बचता है? आखिर इस रिपोर्ट के शुरुआती पैराग्राफ में 'अभिभावकों की जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ गया है' की बात यूँ ही तो नहीं लिख दी गई थी!

Tuesday, June 2, 2009

आज तो खा ही लीजिए रोटी


फुलका खाइए, नान खाइए, तंदूरी खाइए, मिस्सी खाइए, घी लगाइए या सूखी खाइए, दाल से खाइए या मटन करी आजमाइए। कुछ भी कीजिए लेकिन हमारी गुजारिश है कि आज रोटी जरूर खाइए। क्या आज वर्ल्ड रोटी डे जैसा कुछ है? नहीं, आज तो है 'दो जून'  और यकीनन बचपन से आज तक यह सुनते-सुनते आपके-हमारे कान भर गए होंगे कि 'दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से मिलती है' और 'दो जून की रोटी कमाने के लिए इंसान को क्या कुछ नहीं करना पड़ता है।'  वैसे तो दो जून की रोटी का मतलब है दिन में दो समय का भोजन, लेकिन जब आज इस मुहावरे और तारीख का संगम हो ही रहा है तो इसे सेलीब्रेट करने में हर्ज क्या है भइय्ये। कहा भी गया है 'खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए!'

गर्मियों में मस्त है माहौल मोतीझील का


विभिन्न झूलों और ज्वॉयराइड्स का लुत्फ उठाया जा सकता है यहाँ चल रहे एक फेयर में 

इन दिनों जैसे-जैसे सूरज ढलता है, नागरिकों के स्वागत में मोतीझील का मैदान सैंकड़ों बल्बों और ट्यूबलाइटों से रोशन हो उठता है। अरे, भीषण बिजली कटौती के दौर में हम यह क्या लिख रहे हैं, लेकिन यह सच है। अंतर है तो सिर्फ इतना कि जेनसेट्स द्वारा इस अबाध विद्युत आपूर्ति का श्रेय केस्को को नहीं, ड्रीमलैंड इंटरटेनमेंट को जाता है, जिसका फन-एन-फन फेयर गर्मियों में मोतीझील को बदल चुका है 'मोस्ट हैपनिंग स्पॉट' में।
कानपुर में आठ सालों से आयोजित हो रहे इस मनोरंजक मेले में ऐसा बहुत कुछ है जो बच्चों, उनके अभिभावकों और युवा दंपतियों को यहाँ तक खींच रहा है। एक विशालकाय किले के द्वार से होकर गुजरने वाला रास्ता उन्हें कुछ घंटों के लिए ही सही, एक ऐसी मनोरंजक सैर पर ले जाता है, जहाँ सभी के लिए कुछ-न-कुछ आकर्षक है। आखिरकार शहर में ऐसा कितनी जगहों पर होता है जहाँ आप यू.पी. किराना की नन्ही स्टूडेंट्स सिमरन और काजल की तरह ऊँट की सवारी करने के बाद नारियल पानी का लुत्फ उठा सकते हों? ऐसा और कहाँ होता है कि बच्चे मिनी जीप से लेकर सिंगल सीटर प्लेन और फुदकते मेंढकों की सवारी कर सकें और ऐसा भी भला कहाँ-कहाँ होता है कि वे गोविंदनगर से आए राघव और विजय की तरह दस रुपए में हाथ भर लंबाई वाले बुढि़या के बाल चखते हुए चार्टर्ड ट्रेन और गो-कार्ट में बैठ सकें?
शहर के बीचोंबीच लगा यह मनोरंजक मेला मिजाज में तनिक कस्बाई है और शहरी बनावटीपन से यही दूरी इसकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारक भी है। यहाँ जादू के हैरतअंगेज कारनामों के पंडाल हैं और हैं गुब्बारों पर निशाना बांधने तथा रहट-झूलों जैसे कस्बाई मेलों के पारंपरिक आकर्षण। यहाँ लगे चूडिय़ों के एक स्टॉल पर हमारी मुलाकात हुई डा. कुमार सत्येंद्र से जो अपनी पत्नी डा. प्रीति और बेटी लतिका  के साथ फन-एन-फेयर का आनंद ले रहे थे। छोटी-छोटी कलाइयों में भर-भर कर चूडिय़ां पहने लतिका को अभी ढेर सारी चूडिय़ां और चाहिए थीं और डा. कुमार  बिटिया की एक मुस्कान पर बटुआ खाली करने को तैयार थे, ''यह देख मुझे बचपन याद आ रहा है, जब हम खूब तैयार होकर मेला जाते थे कि आज तो पूरा थैला भर कर लौटना है।''
...और यहाँ थैला भरने के लिए आपको थैला भर कर रुपए नहीं लाने पड़ते हैं, न ही सीटी वाले तोतों को खरीदने में आपके हाथों के तोते उड़ते हैं। कारपोरेट शब्दावली में कहा जाए तो यह 'बजट बाजार' है, जहाँ विक्रेताओं की निगाह उस सेग्मेंट पर रहती है, जिसे अर्थशास्त्रियों ने 'द ग्रेट राइजिंग मिडिल क्लास' की संज्ञा दी है। कम मुनाफा लेकिन ज्यादा बिक्री के सिद्धांत पर काम करने वाले दुकानदार कैसे सफल होते हैं, इसे यहाँ बखूबी सीखा जा सकता है।
ड्रीमलैंड फन-एन-फेयर के रूप में यह इंटरटेनिंग एग्जीबिशन आज राष्ट्रीय स्वरूप ले चुकी है लेकिन क्या आपको इसकी सबसे खास बात पता है? यह प्रोजेक्ट कानपुर के ही दो युवाओं सचिन त्रिपाठी और रवीन्द्र कपूर का ब्रेनचाइल्ड है और एक छोटी सी पूँजी के साथ इसकी शुरुआत के समय यह दोनों मित्र क्रमश: 22 और 25 वर्ष के थे। तब संसाधनों को जुटाने के साथ अपने परिवारों को राजी करना भी उनके लिए बड़ी मशक्कत थी, लेकिन नाम के मुताबिक आज ड्रीमलैंड न केवल आगंतुकों बल्कि सचिन और रवीन्द्र के लिए वह जगह बन चुकी है, जिसका कभी इस शहर में सपना ही देखा जा सकता था। यहाँ मस्ती करते बच्चों की 'ही-ही' 'ठी-ठी'' को अपनी आँखों से देखेंगे, तो आप को भी यकीन हो जाएगा!