Tuesday, September 8, 2009

गड्डी जांदी ए छलांगा मारदी


एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते ट्रक ड्राइवरों के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं

पहली निगाह में इनमें रोमांस का कोई तत्व नहीं दिखता; विशालकाय बॉडी और धुँआ छोड़ते हुए घरघराते इंजन में प्रेमगीत की लय ढूंढऩा लगभग असंभव लगता है, लेकिन 'कश्मीर की कली' से लेकर 'गदर' तक कई बॉलीवुड फिल्मों में मुहब्बत का सफर ट्रकों के पहियों पर ही तय हुआ है। आप इन्हें नफरत कर सकते हैं या पसंद (खासतौर पर जब आप ट्रांसपोर्टर या व्यापारी हों), लेकिन अनदेखा नहीं कर सकते। तब तो कतई नहीं, जब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र होने के नाते कानपुर की स्थिति 'ट्रक जंक्शन' जैसी है। 

बाईपास, ट्रांसपोर्ट नगर, फजलगंज, रामादेवी, कालपी रोड या नवनिर्मित एन एच-2, कानपुर की सड़कों से लेकर घनी आबादी वाले व्यावसायिक -  अर्द्ध द्व्यावसायिक क्षेत्रों तक ट्रकों की उपस्थिति सर्वव्यापी है। एक जगह से दूसरी जगह माल पहुँचाने के लिए हजारों किलोमीटर का सफर तय करते इन 'ऑटोमोबाइल बंजारों'  के साथ ही सफर करती है एक अद्भुत संस्कृति, जीवनशैली और भावनाएं।
 
ट्रक ड्राइवरों की बात करते ही सबसे पहले दिमाग में जो छवि कौंधती है, वह है लुंगी-कुर्ता और पगड़ी बाँधे हुए मजबूत बदन वाले सिखों की। उत्तर भारत के इस ठेठ हिंदी भाषी शहर कानपुर से लेकर महाराष्ट्र के सांगली तक में अगर आपको सड़क किनारे पंजाबी ढाबों की अटूट शृंखला मिलती है, तो वह इन्हीं के कारण है। समाजशास्त्री एस.एन सिंह कहते हैं, ''जिस तरह मुंबइया फिल्मों ने पूरे देश को हिंदी सिखा दी, उसी तरह पंजाबी ड्राइवरों की पसंदगी ने माँह (उड़द) की दाल और तंदूरी रोटियों को अखिल भारतीय भोजन बना दिया है। अगर आप फैमिली वीकएंड के लिए लांग ड्राइव और हाईवे फूड का लुत्फ उठाते हैं, तो इसके लिए शुक्रगुजार होना चाहिए इन ट्रक ड्राइवरों की पुरानी पीढिय़ों का, जिन्होंने इस ट्रेंड का बीज बोया था।'' 

यह जानना रोचक है कि पंजाबी ट्रक ड्राइवरों, और अब इस श्रेणी में सभी उत्तर भारतीय ट्रक ड्राइवर आते हैं, की पसंद का खाना सारे देश में मिलता है, लेकिन दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवर खाना कहाँ खाते हैं? पंजाबी ढाबों की तरह जगह-जगह उडुपि (दक्षिण भारतीय भोजनालय) मिलने दुर्लभ हैं, तो क्या दक्षिण भारतीय ड्राइवरों ने अपनी आदतों में परिवर्तन कर रसम की जगह राजमा अपना लिया है? नौबस्ता बाईपास के पास ठहरते दक्षिण भारतीय ट्रक ड्राइवरों से मिलिए और जवाब मिल जाएगा। कोट्टïयम के एन.मुरली राजन कहते हैं, ''इल्लै (नहीं)!''

दरअसल वे और उनके साथी ट्रकों में अपनी आहार सामग्री लेकर चलते हैं और ठिकानों पर खुद ही खाते-पकाते हैं।
महीनों तक घर-परिवार से दूर रहते इन ट्रक ड्राइवरों को भोजन-पानी उपलब्ध कराना आज ढाबा संचालकों के लिए बड़ा कारोबार बन चुका है तो वहीं इनके मनोरंजन की आवश्यकता ने लोकसंगीत कंपनियों की पौ-बारह कर दी है। एक ट्रक आपरेटर पंचानन राय कहते हैं, ''भोजपुरी संगीत को बढ़ावा देने वालों में सबसे बड़ी संख्या पूर्वांचल के ट्रक ड्राइवरों की है। लंबे सफर में यही एक चीज है, जो उनको अनजानी जगहों पर भी अपनी मिट्टी से जोड़े रहती है। यह बात अलग है कि फौरी मनोरंजन के लिए कई ड्राइवर मसालेदार गाने सुनना पसंद करते हैं, संभवत: भोजपुरी लोकसंगीत कैसेटों में द्विअर्थी गीतों की बाढ़ का यह एक बड़ा कारण है।'' 

यह घर से दूर घर का एहसास पाने की छटपटाहट ही है, जो ट्रक ड्राइवरों को अपने ट्रकों को कला के नमूनों में बदल देने को मजबूर करती है। अच्छी बात यह है कि अधिकांश ट्रक मालिक इस पर कोई एतराज नहीं करते। ट्रकों की सजावट में पंजाबी ट्रक विश्व में दूसरे नंबर पर हैं, बीबीसी वल्र्ड की एक प्रस्तुति इनके निकटतम पड़ोसी पाकिस्तानी ट्रकों को साज-सज्जा में विश्व में नंबर एक बताती है। पंजाबी ट्रकों को देखिए तो सही, जिन पर रंग-बिरंगे पैटर्न, फूल-पत्ती, मोर, शेर और कई बार पीछे के फट्टों पर सिर पर हाथ धर उदास बैठी एक ठेठ पंजाबी युवती की झलक दिखती है। ऐसा लगता है कि बाजार में मौजूद हर सजावटी चीज, इनमें काले-लाल परांदे जरूर जोड़ लीजिए, से शृंगार करके यह ट्रक सफर पर नहीं-शादी पर जा रहे हैं। हूँ, आपके मन में जलन हो रही है तो जरा पीछे देखिए। यहाँ 'हार्न प्लीज-ओके' के साथ जलने वालों के लिए पहले ही लिख रखा गया है 'बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला!'

Monday, September 7, 2009

गेमिंग का नया अंदाज दीवाना बना दे


कानपुर में एफ 123 ने अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ उठा रहे हैं भारत भर के गेमिंग फैन्स

कारों की कलाबाजियाँ हों या केकड़ों की कुटाई, कल्पना की हर उड़ान यहाँ आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रियैलिटी) का रूप ले लेती है। एक तरफ डिजिटल कंप्यूटर गेम्स की मेगा स्क्रीन्स पर बैकग्राउंड टेक्सास से लेकर टोक्यो तक का माहौल बना देते हैं, वहीं फोटो वेंडिंग मशीन बात की बात में आपका ऐसा स्केच तैयार कर देती है, जिसमें आप कानपुर में बैठे-बैठे बिग बेन, एफिल टॉवर, इजिप्शियन पिरामिड्स और भी न जाने कहाँ-कहाँ मौजूद दिख सकते हैं। वर्चुअल रियैलिटी से अलग हकीकत में उतरना चाहते हैं तो सवार हो जाइए टक्करें मारती बंपर कारों पर और अपने हाथों का हुनर आजमाइए हॉट फ्लैश पर। मुकद्दर ने साथ दिया तो आप वेंडिंग मशीन्स से ढेर सारी चॉकलेट्स और सॉफ्ट ट्वाय के साथ मुस्कराते हुए घर लौट सकते हैं।

मनोरंजन की यह महफिल सजी है रेव-मोती स्थित एफ 123 में और इसमें दम है आपको दीवाना बनाने का। आज मनोरंजन एक बड़ा उद्योग है और इस क्षेत्र में गेमिंग जोन की बड़ी खिलाड़ी गैलेक्सी इंटरटेनमेंट कारपोरेशन लिमिटेड मुंबई, दिल्ली, नागपुर, इंदौर, बंगलुरु, नोयडा, अहमदाबाद, कोयंबटूर, मंगलौर, सूरत और आगरा में एफ 123 (फैमिली-फ्रैंड्स-फन) ब्रांड नेम के रूप में धूम मचा रही है। पैंटालून रिटेल्स इंडिया लिमिटेड की इस सहायक कंपनी ने कानपुर में भी अपने एम्यूजमेंट राइड्स एंड गेमिंग जोन सेक्शन को वही रंग-रूप दिया है, जिसका लुत्फ शेष भारत के गेमिंग फैन्स उठा रहे हैं।

दक्षिण एशिया की इस सबसे बड़ी पारिवारिक मनोरंजन श्रंखला ने कानपुर में रेव मोती के द्वितीय तल पर इंटरएक्टिव कंप्यूटर गेम्स और इनडोर खेलों का स्थायी मेला सा सजा दिया है। कानपुर में इसके यूनिट मैनेजर धीरज गुलाटी बताते हैं, ''एफ 123 का उद्देश्य कानपुराइट्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मनोरंजन अनुभव देना है। आप यहाँ वास्तविक बंपर कार राइड से लेकर वर्चुअल कार रेसिंग तक का मजा ले सकते हैं। हम कानपुर में दुनिया भर में युवाओं और किशोरों के बीच लोकप्रिय हॉट फ्लैश (एयर हॉकी), वर्चुअल हार्स राइडिंग, वर्चुअल बाइकिंग से लेकर बच्चों के लिए पिक ए टैडी और बीट द क्रैब जैसे रोमांचक और मनोरंजक गेम्स लेकर आए हैं।''

...वो कागज की किश्ती


हर किसी के भीतर छिपा है बचपन। यकीन नहीं आता तो याद कीजिए अपने मैजिकल मोमेंट्स को, जिनमें उम्र के बंधन तोड़ कर की गई कुछ बचकानी हरकतें जरूर शामिल होंगी

सैकड़ों कर्मचारियों वाली फैक्ट्री के मालिक। सफल व्यापार। सामाजिक रूप से सम्मानित। जीवन के हर मोर्चे पर जीत। अकूत धन। मतलब सुख-सुविधा और संपन्नता भरा जीवन। सब कुछ होने के बावजूद भी कभी-कभी लगता है कि हम कुछ मिस कर रहे हैं। जी हां, उम्र के इस पड़ाव पर हम जिस चीज को सबसे ज्यादा मिस करते हैं वह हमारा बचपन और उससे जुड़ी यादें या फिर वह जिसे हम नहीं कर पाए होते हैं!

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की किश्ती, वो बारिश का पानी..., जगजीत सिंह की गायी यह गजल हमें उन यादों की ओर ले जाती है जिन्हें तेज दौड़ती जिंदगी की आंधी अपने साथ उड़ा ले गयी होती है। रिमझिम बरसात का मौसम, सावन के झूले, तीज का त्योहार, नाग पंचमी का मेला, गुडिय़ा,  रक्षाबंधन, दशहरा-दीवाली; और इसी के साथ इन त्योहारों से जुड़ी यादों में गुम हो कर हम फिर समय के उसी दौर में लौट जाना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि हम भले ही सामाजिक रूप से कितने स्थापित हों, सफलता के शिखर पर रहें, नामी-गिरामी हों, धन-दौलत-यश वाले हों, इन्हीं यादों के चलते कहीं न कहीं, कभी न कभी; उम्र, सफलता, पद और रुतबे के बंधनों को तोड़ कर मन बचपन की उन सुनहरी यादों के साथ उन्हीं हरकतों को करने का होता है, जिन्हें वक्त की धूल ने ढंक लिया होता है।

आप अपने बच्चों द्वारा अपनी गुडिय़ा के लिए आयोजित पार्टी में उनसे ज्यादा उल्लास के साथ जुटते हैं, बच्चों के लिए खिलौने खरीदते समय उनकी (बच्चों) चाहत से विपरीत आप अपनी  पसंद का ही खिलौना खरीदते हैं (इसके पीछे यह बहाना काम करता है कि यह खिलौना तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता है), पार्क में बच्चों के साथ आप भी घास पर लोटने लगते हैं और गली के मोड़ पर गुजरते हुए बच्चों के साथ कंचे खेलने लगते हैं। बारिश के बहते पानी को देख पुरानी कॉपी-किताबों के नहीं तो अपनी डायरी के पन्नों से ही उसमें नाव बना कर डालते हैं तो कभी इन पन्नों से हवाई जहाज बना कर उड़ाते हैं।

आज यह सर्वविदित तथ्य है कि बच्चों के खिलौनों की खरीददारी में बच्चों से ज्यादा उत्सुकता माता-पिता दिखाते हैं। दुकान पर खरीददारी के वक्त यह माता-पिता ही हैं जो बच्चे से पहले किसी खिलौने से जी भर कर खेलते हैं और फिर खरीदते हैं। गाडिय़ों को दौड़ाते हैं, बंदूक से गोली चलाते हैं और टेडी बियर को सहलाते हैं और वही खिलौना खरीदते हैं जो (बच्चे को नहीं) उन्हें पसंद होता है।

शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल के मालिक सुमित मखीजा इस बारे में कहते हैं, ''हर किसी के भीतर बचपना और बचपन से जुड़ी यादें जीवन भर बनी रहती हैं। मन की अन्य भावनाओं की तरह ही यह भी कभी न कभी किसी न किसी रूप में बाहर भी निकल आती हैं। पिछले दिनों मैं दो दोस्तों के साथ हिल स्टेशन पर गया था। शाम को घूम कर लौटते समय रास्ते में एक बारात जा रही थी, बस बारात को देखते ही हम तीनों को शरारत सूझ गयी और हमने 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज पर बारात में डांस करना शुरू कर दिया। काफी देर से हमें जम कर नाचते देख बारातियों को हम पर शक होने लगा तो हम धीरे से वहां से खिसक आए।''

बचपन और इससे जुड़ी यादें लोगों को इतनी लुभाती है कि बाजार पर भी इसका जादू साफ दिखाई देता है। आज कई विज्ञापनों में बच्चों और बचपने से जुड़ी यादों को इस तरह से दिखाया जाता है कि उस कंपनी का उत्पाद बिक्री की नयी ऊंचाइयों को छूने लगता है। जिस समय आप टीवी पर एक मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी का बारिश में भीगते हुए बच्चे का अपने पिता को फोन करना और पिता का बचपन की यादों में डूब जाना देख रहे होते हैं; उसी समय देश में कहीं एक नया व्यक्ति उस कंपनी का उपभोक्ता बन रहा होता है। 'जी ललचाए रहा न जाए' या फिर 'जब मैं छोटा बच्चा था, गोली खाकर जीता था' पंच लाइन वाले विज्ञापन तो आपको याद ही होंगे।
   
बचपना हर किसी के भीतर होता है और इसकी यादें हर समय बसी रहती हैं। आज भी जगजीत सिंह के कंसर्ट में सबसे ज्यादा फरमाइश यदि किसी गजल की होती है तो 'वह यह दौलत भी ले लो' ही है। यदि मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने बचपन की यादों पर आधारित 'ईदगाह'  नामक कहानी गढ़ी थी, तो यकीन मानिए हर आदमी के दिल में एक ईदगाह बसती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हैं तो भी इसीलिए कि कहीं न कहीं यह लेख आपको बचपन की सुनहरी यादों को ताजा करवा रहा है। ऐसा नहीं है क्या?

Monday, June 8, 2009

कानपुर के कोतवाल



पनकी हो या पुलिस चौकियां, शहर में हर कहीं दिखते हैं हनुमान मंदिर

इसे लोगों की श्रद्धा कहा जाए या महज संयोग, कि संकट मोचन हनुमान लगभग 48 लाख की आबादी वाले इस शहर के 'दैवी कोतवाल' बने हुए हैं। शहर में छोटे-बड़े मंदिरों की संख्या हजारों में है, लेकिन भौगोलिक स्थिति में नजर डालें तो रामभक्त हनुमान हर मुहल्ले और चौराहे पर विराजे हैं।
कानपुर के हर छोर पर संकट मोचन के प्रतिष्ठित मंदिर हैं, जहाँ पर यहाँ के निवासी ही नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों से आये लोगों की आस्था नमन करती है। इनमें आप शोभन गढ़ी, पनकी, जी. टी. रोड स्थित रुमावाले हनुमान, गोल चौराहे के निकट स्थित दक्षिणेश्वर तथा सत्ती चौरा के सालासार वाले बालाजी और किदवई नगर वाले हनुमान मंदिर को गिन सकते हैं। मंदिर छोटा हो या बड़ा, यह भी चमत्कार की बात है कि शहर से जुड़े हर पुलिस स्टेशन और चौकी में हनुमान जी प्रतिष्ठित हैं।
लोग जब भी कोई नया वाहन खरीदते हैं तो सबसे पहले उनकी गाड़ी संकट मोचन की चौखट की ओर दौड़ पड़ती है जहाँ उनका विश्वास टिका है, वह जगह शोभन हो या पनकी। हनुमान जी के इन दरबारों में प्रतिदिन सुबह से ही जयकारे गूंजने लगते हैं जिसका सिलसिला देर रात तक चलता है लेकिन मंगलवार, शनिवार के दिन यहाँ बाहर से आने वाले भक्तों की संख्या हजारों में होती है। 22 वर्षों से पनकी मंदिर में प्रतिदिन मत्था टेकने आ रहे आजाद नगर निवासी सुरेश गुप्ता इस बारे में कहते हैं, ''यह वह दरबार है जहाँ हर मनोकामना पूर्ण होती है। सरकार तो सिर्फ भाव के भूखे हैं, मन में विश्वास है तो यहाँ सब कुछ है। शहर से बाहर हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा सुबह संकट मोचन दर्शन मेरा पहला काम है।' प्रसाद विक्रेता राम किशोर बताते हैं ''मंगल और शनिवार को यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। सुबह से शाम तक 20-25 हजार लोग दर्शन कर जाते हैं। औसत निकालें तो यहाँ 15 कुंतल से अधिक प्रसाद चढ़ जाता है जबकि बुढ़वा मंगल जैसे पर्वों में अन्य जिलों से आये भक्तों की भीड़ 70 से 80 हजार की संख्या में होती है।'
इस दिन सुबह से ही लम्बी लाइन दर्शन की प्रतीक्षा में लग जाती है। इस बारे में और जानकारी देते हुए दक्षिणेश्वर मंदिर के पुरोहित अरविन्द शुक्ला कहते हैं, ''कानपुर के कोतवाल तो हनुमान जी ही हैं। वह चारों ओर से शहर की रक्षा कर रहे हैं, वैसे भी कलयुग में इन्हें सर्वाधिक पूज्य होने का आशीर्वाद मिला है।' वह कहते हैं कि यहाँ दिन भर दर्शन करने वालों के आने का क्रम बना रहता है।
परीक्षा के दिन हों या इंटरव्यू की घड़ी, युवाओं में संकट मोचन के प्रति अधिक आस्था देखी जा सकती है। विश्वास के साथ की गई याचना त्वरित स्वीकार होती है। इन दरबारों में आस्था और विश्वास से झुके युवाओं के मस्तक लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खारिज कर देते हैं कि 'आज का युवा भक्ति और उपासना से भटक गया है' क्योंकि नगरवासियों के लिए हनुमान जी यदि कानपुर के कोतवाल हैं तो युवाओं के लिए 'कलयुग की सुप्रीम कोर्ट!'

लागे सब कुछ नया नया


उत्तर भारत में मेडिकल प्रिपरेशन के लिए खास पहचान रखने वाली कोचिंग मंडी भी क्या अंधविश्वास की चपेट में है? आखिर क्या वजह है कि यहाँ मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से ही होती है?

''मुझे यह तो पता था कि मेडिकल की तैयारी कराने वाली सबसे अच्छी कोचिंग्स कानपुर में हैं, लेकिन मेरे लिए यह शहर एकदम नया था। पड़ोसी रामनाथ चाचा कानपुर में नौकरी करते हैं। वह छुट्टी में गाँव आये तो उन्होंने बताया कि कानपुर के कोचिंग जोन में जिनके नाम के आगे न्यू लगा हो तो समझ लेना, वह मेडिकल की कोचिंग है'' बताते हैं बस्ती के सौनासी गांव से कानपुर में मेडिकल इंट्रैंस एग्जाम की तैयारी करने आये उमेश कुमार।
काकादेव, कानपुर की मेडिकल इंट्रैंस कोचिंग्स के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया देने वाले उमेश कुमार इकलौते स्टूडेंट नहीं हैं। अब तो बाहर से मेडिकल की तैयारी करने के लिए शहर आने वाले हर स्टूडेंट के लिए 'न्यू' का अर्थ मेडिकल कोचिंग हो गया है। शिक्षा के बाजार में जिन कोचिंग्स की पहचान है, उनकी बात छोड़ दे तो भी नई खुलने वाली ज्यादातर कोचिंग्स के नाम की शुरूआत 'न्यू' से ही देखने को मिलती है। 
मेडिकल की हर दूसरी कोचिंग के नाम के आगे 'न्यू' लगाने के बारे में कोचिंग संचालकों की अपनी-अपनी प्रतिक्रिया है। न्यू लाइट कोचिंग के संचालक डॉ. एस.पी. सिंह कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि लोग न्यू शब्द को कैप्चर क्यों कर रहे हैं? वैसे मैं बता दूं कि जब मैंने कोचिंग प्रारंभ करने की योजना बनाई थी तो हमारे सीए ने हमसे कहा था, नाम थोड़ा यूनिक रखना। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तभी मुझे हाईस्कूल में पढ़ी गई न्यू लाइट ऑफ जनरल इंग्लिश की याद आई और मैंने कोचिंग का नाम न्यू लाइट रख दिया। अब तो हर मेडिकल कोचिंग के नाम की शुरूआत न्यू से हो रही है तो इसका कारण आप यह समझें कि यह मात्र कंफ्यूजन क्रियेट करने के लिए है।''
न्यू स्पीड के संचालक रोहित अवस्थी कहते हैं, ''मैंने तो इसके बारे में कभी सोचा ही नहीं। हां यह जरूर कहूंगा कि इसकी मुख्य वजह आप सिर्फ परंपरा का निर्वहन मान लें, इसलिए जो भी नया संस्थान शुरू होता है उसके नाम के आगे न्यू लगा होता है। इसमें किसी के नाम को कॉपी करना या कोई अंधविश्वास जैसी बात नहीं है।''
न्यू टैक कोचिंग में बायोलॉजी पढ़ाने वाले शिक्षक के.के. गुप्ता कहते हैं, ''जी हाँ, इसके पीछे का मूल कारण अंधविश्वास है। लखनऊ में न्यू स्टैण्डर्ड नाम की काफी पुरानी मेडिकल कोचिंग है, जो काफी सक्सेसफुल रही है। निश्चित रूप से इसी धारणा के चलते लोग यहां भी सक्सेस पाने लिए न्यू शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।''
न्यू रेज कोचिंग के संचालक डॉ. विजय का मानना है कि न्यू शब्द कानपुर में मेडिकल कोचिंग की पहचान बन गया है, इसलिए लोग इसे सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, ''वैसे भी न्यू शब्द किसी भी चीज को समय के साथ अपडेट करते हुये नवीनता प्रदान करता है। बस यही वजह है कि अक्सर किसी उत्पाद, शॉप या एजेंसी के नाम के आगे न्यू लगा मिल जाता है। इसी धारणा ने मेडिकल कोचिंग संचालकों को भी न्यू लगाने के लिए प्रेरित किया है!''

न्यू का बड़ा नाम है

काकादेव की कोचिंग मंडी में न्यू की तलाश में दिखे कुछ कोचिंग्स के बोर्ड खुद कह देते हैं पूरी कहानी

  • न्यू लाइट
  • न्यू स्पीड
  • न्यू रेज
  • न्यू  इरा
  • न्यू  टैक
  • न्यू  स्टेप 
  • न्यू राइट
  • न्यू स्पेक्ट्रम  
  • न्यू नारायण 
  • न्यू  ईरा
  • न्यू  स्ट्रीट
  • न्यू  इलाइट

मैजिक ऑफ मेंहदी


युवाओं ने चढ़ाया परंपरागत मेंहदी को आधुनिकता का रंग और अब पारंपरिक डिजाइनों की जगह ले रहे हैं फंकी पैटर्न

शादी की खरीददारी पर निकलीं सॉफ्टवेयर इंजीनियर दीपाली की लिस्ट में नामी और मंहगे सौंदर्य उत्पादों के साथ ही मेंहदी का नाम भी लिखा था और शादी की पहली रस्म से दो दिन पहले से वह मेंहदी दीपाली ही नहीं, घर आईं सभी महिलाओं के हाथों पर खुशियों भरा रंग बिखेर रही थी। जी हां, खुशियां और मेंहदी। इन्हें आप एक दूसरे का पर्याय कह सकते हैं। घर में शहनाई गूंजने वाली हो या फिर कोई आयोजन या फिर कोई त्योहार, बेटी से लेकर मम्मी तक चाय का पानी, नींबू, शक्कर, कत्था, कॉफी सरीखी चीजों का जुगाड़ करने के साथ ही हाथों में मेंहदी की कटोरी या कोन थामे, इसे लगाने वाले की तलाश में घूमतीं नजर आ जाती हैं।
खुशियों की सौगात समेटे खुशरंग हिना के गहरे रंग की ख्वाहिश सभी महिलाओं-युवतियों को होती है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और बदलते समय के साथ मेंहदी नए रूप में नजर आ रही है। युवाओं ने मेंहदी को नया फैशन स्टेटमेंट बना दिया है। सगाई, शादी, त्योहार या पार्टी की बात जाने दें, अब तो रोज डे, कालेज डे, फेयरवेल पार्टी, वैलेंटाइन डे सरीखे आयोजन भी लड़कियों के लिए मेंहदी लगाने के लिए उचित मौके होने लगे हैं।
नवीन मार्केट में मेंहदी लगाने वाले विकास बताते हैं, ''शादियों की बात जाने दें, अब तो छोटे मोटे अवसरों पर भी लड़कियां मेंहदी लगवाती हैं। आज अन्य फैशनेबल वस्तुओं की तरह लड़कियां मेंहदी में भी नई डिजाइनों की मांग करने लगी हैं।'  इसके परिणामस्वरूप मेंहदी की परंपरागत कलश, डोली, मोर, आम, तोता, स्वास्तिक, फूल, पत्ती और बिंदुओं वाली डिजाइनों का स्थान फंकी पैटर्न और आकर्षक डिजाइनों ने ले लिया है। मेंहदी के मिक्स एण्ड मैच व फ्युजन पैटर्न काफी चलन में हैं। इनके अंतर्गत अरेबिक, मारवाड़ी, इंडियन और ब्लैक आउट लाइन्स युवतियों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। भावी पति का नाम डिजाइन के बीच लिखवाना मेंहदी में नया ट्रेंड है।
स्कूल की फेयरवेल पार्टी के लिए ड्रेस फाइनल करते समय क्लास-12 की स्टूडेंट सुषमा गुप्ता मेंहदी को नहीं भूलतीं। पार्टी के लिए सुषमा ने दो दिन पहले से ही मेंहदी लगा ली थी, लेकिन उन्होंने मेंहदी हाथों पर नहीं बांहों पर लगाई थी। जी हाँ, युवाओं के बीच मेंहदी टैटू के रूप में परंपरागत शैली की बंदिश तोड़ नए नए पैटर्न और स्टाइल से प्रयोग की जा रही है। सिर्फ हाथ या बालों में प्रयोग की जाने वाली मेंहदी का दायरा शरीर के लगभग सभी अंगों तक हो गया है। जेन नेक्सट गल्र्स गला, कलाई, बांह, कमर, नाभि और कंधों पर मेंहदी टैटू का प्रयोग कर रही हैं।
बंदिशों को तोडऩे का दमखम रखने वाले युवा सामान्य मेंहदी के साथ ही डिफरेंट कलर्स और ग्लिटर वाली मेंहदी प्रयोग कर रहे हैं। लड़के भी इस होड़ में पीछे नहीं हैं। कट स्लीव की शर्ट या टी-शर्ट पहने लड़कों की बांहों और कलाइयों पर फंकी मेंहदी टैटू दिखना सामान्य बात हो चली है। मेंहदी से बांहों में शेर का चेहरा बनाए एमबीए स्टूडेंट प्रतीक मिश्रा कहते हैं, ''मेंहदी के टैटू ओरिजनल टैटू सरीखा लुक तो देते ही हैं, परमानेंट न होने कारण समय-समय पर आप मनचाही डिजाइन बनवा सकते हैं।'

Wednesday, June 3, 2009

बबुआ डॉलर भेज रहा है



सॉफ्टवेयर और आईटी सेक्टर में स्थानीय युवाओं को मिल रहे विदेशी अवसरों की बदौलत बदल रही है अभिभावकों की सोच और जीवनशैली

तीन साल पहले एल.टी.ए. की बदौलत पति के साथ हरिद्वार की यात्रा पर गईं श्रीमती कृष्णा दीक्षित के पास जीवन से संतुष्ट होने के पर्याप्त कारण थे। आखिरकार बैंक कर्मचारी पति के साथ वैवाहिक जीवन के 32 वर्षों में उन्होंने मसूरी से लेकर मदुरै तक लगभग उन सभी भारतीय पर्यटन स्थलों की यात्रा की थी, जिनकी कल्पना औसत मध्यवर्गीय परिवार कर सकता है, लेकिन 2008 की जनवरी ने उनकी जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ा दिया। इस महीने वे अपनी पहली यूएसए ट्रिप पर गईं (जो उनके जीवन की पहली विदेश यात्रा भी थी) और इसके लिए उन्हें अथवा पति सुशील को एक नया पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा।
नहीं, यह पैकेज उन्हें न ही किसी टूरिज्म प्रमोशन कंपनी ने दिया था और न ही उनकी लॉटरी लगी थी। वे तो अपने बड़े बेटे राघवेंद्र का 'फ्लैट सेट करने के लिए'  न्यूयार्क गईं थीं, जहाँ वह एक जर्मन इंडस्ट्रियल ट्रांसफार्मर कंपनी के अमेरिकी मुख्यालय में सिस्टम इंजीनियर है। सो, कभी पुखरायां के एक छोटे से गाँव से ब्याह कर कानपुर आईं कृष्णा सास-बहू के सीरियल्स और चटनी-पुलाव बनाने से ऊपर अब हॉलीवुड के फिल्म स्टूडियो और मस्टर्ड सॉस-फ्राइड राइस विद बेबीकार्न की बात भी कर लेती हैं। आज उनके एलबमों में पाँच सौ रुपए के कोडक कैमरा से खींची गई पुरानी तस्वीरों से लेकर सोनी साइबर शॉट की तस्वीरों के डिजिटल प्रिंट तक शामिल हैं। इटैलियन कटग्लास में लाइम स्क्वैश सर्व करती यह 'फॉरेन रिटर्न माँ'  राघवेंद्र की तारीफ करते हुए नहीं अघाती, ''श्रवणकुमार ने बंहगी में बिठा कर माँ-बाप को सारे तीर्थ करवाए थे और राघवेन्द्र हमको बोइंग में बिठा कर दुनिया दिखा दिए!''
कभी केरल और पंजाब में दिखने वाला डॉलर, दिरहम तथा रियाल का बहाव अब उत्तरप्रदेश की ओर घूम गया है और तकनीकी-शैक्षणिक रूप से समृद्ध कानपुर इसका बड़ा केंद्र सिद्ध हो रहा है। अगर 70' के दशक में पंजाब से कनाडा और यूएसए के लिए भारतीय अप्रवासियों की बड़ी संख्या कृषि श्रमिकों तथा छोटे उद्यमियों की थी; 80' के उत्तरार्ध में खाड़ी देशों के 'पेट्रो डॉलर' ने केरल के मिस्त्रियों-प्लंबरों और ड्राइवरों को आकर्षित किया था, तो 21वीं शताब्दी के शुरुआती छह वर्ष कंप्यूटर प्रोफेशनल्स और आईटी-आईटीईएस प्रोवाइडर्स के लिए यूएसए, यूरोप तथा फार ईस्ट की चाभी साबित हुए हैं।
क्या युवा प्रतिभाओं को विदेशी नौकरी के रूप में कानपुर की बड़ी हिस्सेदारी की बात कुछ बढ़ा-चढ़ा कर की जा रही है? फैक्ट्स और वर्क परफारमेंस के रूप में देखा जाए तो यह हिस्सा तो बंगलौर, हैदराबाद, मुंबई और एनसीआर के पास होना चाहिए, जहाँ सॉफ्टवेयर कंपनियों और बैक ऑफिस/कॉल सेंटर का व्यवसाय बड़े पैमाने पर है। इस बात को स्पष्ट करते हैं कंप्यूटर एजुकेशन इंस्टीट्यूट डाटा एक्सपर्ट के निदेशक दीपक शुक्ला, ''दरअसल, कानपुर में इन व्यवसायों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का पर्याप्त विकसित न होना ही कंप्यूटर ऑपरेशन्स में माहिर प्रतिभाओं के लिए वरदान बन गया है। स्थानीय युवा जानते हैं कि इन क्षेत्रों में कैरियर के लिए उन्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा। एक बार शहर से बाहर कदम पड़ा तो इनके लिए एनसीआर और न्यूयार्क एक बराबर है, लेकिन देश की तुलना में विदेशी आय का अंतर कई बार लाखों रुपए पड़ जाता है। स्थानीय स्तर पर सुविधाएं मिलने के कारण सॉफ्टवेयर और बैक ऑफिस हब कहलाने वाले भारतीय शहरों केे युवा बाहर निकलने की कुछ कम सोचते हैं जबकि कानपुर सरीखे शहरों के युवाओं का लक्ष्य ही होता है चलो अमेरिका!''
विदेश में वर्क परमिट की इस चाभी ने अगर कानपुर के कई युवाओं के लिए सुनहरे भविष्य का द्वार खोल दिया तो वहीं उनके द्वारा कमाई जा रही विदेशी मुद्रा यहाँ बसे अभिभावकों के लिए सुखद वर्तमान की गारंटी साबित हो रही है। आईआईटी के स्नातकों को मिलने वाले 25-50 लाख रुपए के औसत पैकेज को दरकिनार भी कर दें तो यूएसए में सामान्य कंप्यूटर प्रोफेशनल मासिक 3800 डॉलर तो कमा ही लेते हैं। विदेश के हिसाब से यह रकम बहुत बड़ी नहीं, लेकिन भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करते ही यह 1,71,000 प्रतिमाह हो जाती है और अगर कहीं यह नौकरी ब्रिटेन में हुई तो पाउंड से परिवर्तित रकम बनी 3,04,000। युवाओं द्वारा इस धनराशि का एक बड़ा हिस्सा बचत के रूप में भारत में बसे परिवार को भेज दिया जाता है और अभिभावक बन जाते हैं इस रकम का इस्तेमाल करने वाले फंड मैनेजर।
शहर में विदेशी नौकरी की स्वीकार्यता इस कदर बढ़ी है कि परिचितों के बीच हर तीसरे-चौथे घर में कोई न कोई बाहर बसे किसी रिश्तेदार का किस्सा सुनाने लगता है। कैलीफोर्निया में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत अजय तिवारी जानकारी देते हैं, ''यूएसए में बैचलर के लिए औसत 1200 डॉलर की रकम जीवन-यापन को काफी होती है। अगर कंपनी अच्छी है तो इसकी सुविधाएं ही इतनी अधिक होती हैं कि यह 1200 डॉलर भी आप अपनी खुशी के लिए खर्च कर डालते हैं।''  रामबाग में बसे परिवार को रुपए भेजने के लिए अजय सिटीबैंक एनआरआई मनीट्रांसफर स्कीम का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, ''भारतीय युवाओं में बचत की इस आदत को देखते हुए ऐसी कई फाइनेंशियल सर्विसेज अस्तित्व में आ गई हैं। आप भारत से जुड़ी कोई भी समाचार अथवा सूचनापरक वेबसाइट देखें, इनके विज्ञापन तुरंत पॉपअप हो जाते हैं।''
अजय का ही उदाहरण लें तो कैलीफोर्निया से कानपुर आया यह पैसा उनके परिवार की जीवनशैली बदल चुका है। यूएसए में 3-3 साल के दो वर्क परमिट रिन्युअल की बदौलत उनका रामबाग स्थित घर मध्यवर्गीय जीवनशैली को छोड़ उच्चमध्यवर्गीय अंदाज अपना चुका है। रामगंगा सिंचाई परियोजना में एलडीसी क्लर्क रहे रामबालक तिवारी बेटे की उपलब्धियां गिनाते हैं, ''उसकी वजह से घर में जेन से लेकर जेनरेटर तक आ गया।''
12 दिन की छुट्टी लेकर शहर आए अजय के लिए रिश्तों की लंबी सूची है लेकिन बात शायद सर्दियों तक ही जम पाएगी। वजह लड़कियों की खूबसूरती नहीं और दहेज का बिंदु तो यहाँ सिरे से नदारद है, अजय की जरूरत है, ''एक ऐसी लड़की जो कंप्यूटर प्रोफेशनल हो और वहाँ (यूएसए) में मेरे साथ काम कर सके।'' शादी-ब्याह के लिए जन्मपत्रियां मिलाने वाले संतोष शास्त्री भी इन 'एनआरके''  (नॉन रेजिडेंट कानपुराइट्स) दूल्हों में पनपे इस चलन की पुष्टि करते हैं, ''अच्छी कमाई करने वाले यह लड़के शादी तो माँ-बाप की मर्जी से ही करते हैं लेकिन शर्त यही है कि लड़की भी कंप्यूटर इंजीनियर हो और विदेश में रह सके। ऐसी लड़की मिल जाती है तो दहेज की माँग लगभग शून्य हो जाती है और बिस्वा-गोत्र की ऊँच-नीच भी नहीं रहती। कई बार लड़के की यह इच्छा पूरी करने के लिए खुद माँ-बाप वर्ग का बंधन तोड़ देते हैं।'' अच्छा ही है, जब बात कर्म की कुंडली मिलाने की हो तो जन्मकुंडली का अर्थ ही क्या बचता है? आखिर इस रिपोर्ट के शुरुआती पैराग्राफ में 'अभिभावकों की जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ गया है' की बात यूँ ही तो नहीं लिख दी गई थी!

Tuesday, June 2, 2009

आज तो खा ही लीजिए रोटी


फुलका खाइए, नान खाइए, तंदूरी खाइए, मिस्सी खाइए, घी लगाइए या सूखी खाइए, दाल से खाइए या मटन करी आजमाइए। कुछ भी कीजिए लेकिन हमारी गुजारिश है कि आज रोटी जरूर खाइए। क्या आज वर्ल्ड रोटी डे जैसा कुछ है? नहीं, आज तो है 'दो जून'  और यकीनन बचपन से आज तक यह सुनते-सुनते आपके-हमारे कान भर गए होंगे कि 'दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से मिलती है' और 'दो जून की रोटी कमाने के लिए इंसान को क्या कुछ नहीं करना पड़ता है।'  वैसे तो दो जून की रोटी का मतलब है दिन में दो समय का भोजन, लेकिन जब आज इस मुहावरे और तारीख का संगम हो ही रहा है तो इसे सेलीब्रेट करने में हर्ज क्या है भइय्ये। कहा भी गया है 'खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए!'

गर्मियों में मस्त है माहौल मोतीझील का


विभिन्न झूलों और ज्वॉयराइड्स का लुत्फ उठाया जा सकता है यहाँ चल रहे एक फेयर में 

इन दिनों जैसे-जैसे सूरज ढलता है, नागरिकों के स्वागत में मोतीझील का मैदान सैंकड़ों बल्बों और ट्यूबलाइटों से रोशन हो उठता है। अरे, भीषण बिजली कटौती के दौर में हम यह क्या लिख रहे हैं, लेकिन यह सच है। अंतर है तो सिर्फ इतना कि जेनसेट्स द्वारा इस अबाध विद्युत आपूर्ति का श्रेय केस्को को नहीं, ड्रीमलैंड इंटरटेनमेंट को जाता है, जिसका फन-एन-फन फेयर गर्मियों में मोतीझील को बदल चुका है 'मोस्ट हैपनिंग स्पॉट' में।
कानपुर में आठ सालों से आयोजित हो रहे इस मनोरंजक मेले में ऐसा बहुत कुछ है जो बच्चों, उनके अभिभावकों और युवा दंपतियों को यहाँ तक खींच रहा है। एक विशालकाय किले के द्वार से होकर गुजरने वाला रास्ता उन्हें कुछ घंटों के लिए ही सही, एक ऐसी मनोरंजक सैर पर ले जाता है, जहाँ सभी के लिए कुछ-न-कुछ आकर्षक है। आखिरकार शहर में ऐसा कितनी जगहों पर होता है जहाँ आप यू.पी. किराना की नन्ही स्टूडेंट्स सिमरन और काजल की तरह ऊँट की सवारी करने के बाद नारियल पानी का लुत्फ उठा सकते हों? ऐसा और कहाँ होता है कि बच्चे मिनी जीप से लेकर सिंगल सीटर प्लेन और फुदकते मेंढकों की सवारी कर सकें और ऐसा भी भला कहाँ-कहाँ होता है कि वे गोविंदनगर से आए राघव और विजय की तरह दस रुपए में हाथ भर लंबाई वाले बुढि़या के बाल चखते हुए चार्टर्ड ट्रेन और गो-कार्ट में बैठ सकें?
शहर के बीचोंबीच लगा यह मनोरंजक मेला मिजाज में तनिक कस्बाई है और शहरी बनावटीपन से यही दूरी इसकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारक भी है। यहाँ जादू के हैरतअंगेज कारनामों के पंडाल हैं और हैं गुब्बारों पर निशाना बांधने तथा रहट-झूलों जैसे कस्बाई मेलों के पारंपरिक आकर्षण। यहाँ लगे चूडिय़ों के एक स्टॉल पर हमारी मुलाकात हुई डा. कुमार सत्येंद्र से जो अपनी पत्नी डा. प्रीति और बेटी लतिका  के साथ फन-एन-फेयर का आनंद ले रहे थे। छोटी-छोटी कलाइयों में भर-भर कर चूडिय़ां पहने लतिका को अभी ढेर सारी चूडिय़ां और चाहिए थीं और डा. कुमार  बिटिया की एक मुस्कान पर बटुआ खाली करने को तैयार थे, ''यह देख मुझे बचपन याद आ रहा है, जब हम खूब तैयार होकर मेला जाते थे कि आज तो पूरा थैला भर कर लौटना है।''
...और यहाँ थैला भरने के लिए आपको थैला भर कर रुपए नहीं लाने पड़ते हैं, न ही सीटी वाले तोतों को खरीदने में आपके हाथों के तोते उड़ते हैं। कारपोरेट शब्दावली में कहा जाए तो यह 'बजट बाजार' है, जहाँ विक्रेताओं की निगाह उस सेग्मेंट पर रहती है, जिसे अर्थशास्त्रियों ने 'द ग्रेट राइजिंग मिडिल क्लास' की संज्ञा दी है। कम मुनाफा लेकिन ज्यादा बिक्री के सिद्धांत पर काम करने वाले दुकानदार कैसे सफल होते हैं, इसे यहाँ बखूबी सीखा जा सकता है।
ड्रीमलैंड फन-एन-फेयर के रूप में यह इंटरटेनिंग एग्जीबिशन आज राष्ट्रीय स्वरूप ले चुकी है लेकिन क्या आपको इसकी सबसे खास बात पता है? यह प्रोजेक्ट कानपुर के ही दो युवाओं सचिन त्रिपाठी और रवीन्द्र कपूर का ब्रेनचाइल्ड है और एक छोटी सी पूँजी के साथ इसकी शुरुआत के समय यह दोनों मित्र क्रमश: 22 और 25 वर्ष के थे। तब संसाधनों को जुटाने के साथ अपने परिवारों को राजी करना भी उनके लिए बड़ी मशक्कत थी, लेकिन नाम के मुताबिक आज ड्रीमलैंड न केवल आगंतुकों बल्कि सचिन और रवीन्द्र के लिए वह जगह बन चुकी है, जिसका कभी इस शहर में सपना ही देखा जा सकता था। यहाँ मस्ती करते बच्चों की 'ही-ही' 'ठी-ठी'' को अपनी आँखों से देखेंगे, तो आप को भी यकीन हो जाएगा!

Tuesday, May 26, 2009

जीवन है क्या संगीत बिना


गर्मियों की छुट्टियों में स्टूडेंट्स को अपना शौक निखारने के लिए पर्याप्त समय मिलता है। ऐसी ही एक हॉबी है म्यूजिक, इस क्षेत्र में सही शुरुआत की जाए तो यह भविष्य का सुनहरा द्वार भी खोल सकती है। 

समय के साथ मानसिकता में भी बदलाव आया है। कुछ समय पूर्व समर वैकेशन का अर्थ हुआ करता था छुट्टियों के दिन, लेकिन आज के विद्यार्थी बहुत सजग हैं। वह अपने इस महत्वपूर्ण समय को यूँ ही बेकार नहीं करना चाहते हैं। सो, स्कूल कालेज बंद होते ही शिक्षा से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं और स्कूलों ने समर क्लासेज प्रारंभ कर दी हैं जहाँ विद्यार्थी प्रतिभा व रुचि के अनुसार भविष्य की बुनियाद रख सकते हैं।
संगीत सभी को आकर्षित करता है, इसीलिए मनोरंजन और व्यक्तित्व विकास को ध्यान में रखते हुए स्कूलों में पाठ्यक्रम के रूप में या एक्सट्रा एक्टिविटी के रूप में संगीत की शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है। विद्यार्थी इस शौक को निखार कर यदि संगीत में कैरियर बनाना चाहते हैं तो इस क्षेत्र में ढेरों अवसर हैं जिसमें कार्य कर आप पहचान और पैसा दोनों पा सकते हैं। हर क्षेत्र की तरह संगीत में भी सफलता पाने के लिए आवश्यक है आत्मविश्वास, धैर्य और लगन के साथ ही पूर्ण दक्षता। संगीत ऐसी हॉबी है जिसे सीखने के साथ-साथ आप अपनी पढ़ाई भी जारी रख सकते हैं। अगर आपको संगीत की उचित समझ हो गई और आपने किसी अन्य क्षेत्र में जॉब कर रखा है तो भी आप पार्टटाइम काम कर अतिरिक्त पैसा कमा सकते हैं।
आवश्यक है गहरी समझ
आप संगीत के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए प्रयासरत हैं तो आवश्यक है कि आप किसी योग्य, अनुभवी शिक्षक से कक्षायें लेने के साथ ही संगीत संस्थाओं से मार्ग दर्शन ले तैयारी करें। प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद इस संदर्भ में लचीली दूरस्थ शिक्षा देती है वहीं कानपुर में अशोकनगर स्थित लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी नियमित कक्षाओं द्वारा इस हुनर को निखारने में सहायक है। गुरु-शिष्य परंपरा में शिक्षा लें या कोई संस्था ज्वाइन करें, शर्त यह है कि आपको संगीत को गहनता से समझना होगा।
संगीत के प्रकार
संगीत की कई विधाएं हैं जैसे शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक, वेस्टर्न, पॉप आदि। अगर आप इनके बारे में गहन जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको शास्त्रीय संगीत में परिपक्व होना आवश्यक है, क्योंकि भारतीय संगीत का प्रमुख आधार शास्त्रीय संगीत है, चाहे आप गायक बनें या वादक।
कैसे करें तैयारी
संगीत के क्षेत्र में तैयारी करने के लिए आवश्यक है कि आप प्रशिक्षण लेने के साथ ही नियमित रियाज करें। इसके लिए आप स्वयं अभ्यास करने के साथ ही जो सीख रहे हों, उसके सी. डी./ऑडियो कैसेट खरीद कर अभ्यास तो कर ही सकते हैं, अपनी कमियों को दूर करने के साथ ही आत्मविश्वास को बढ़ा सकते हैं।
कार्य के अवसर
इस क्षेत्र में रोजगार के ढेरों अवसर हैं जहाँ आप अपनी प्रतिभा के बल पर सफल कैरियर बना सकते हैं। इसमें आप रिकार्डिस्ट, गायक, म्यूजिक डायरेक्टर, म्यूजिक अरेंजर, गीतकार, वादक (इसमें आपको किसी भी वाद्य यंत्र को बजाने की अच्छी जानकारी होनी चाहिए) आदि बन सकते हैं। यदि आप स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहते हैं तो स्वयं का रिकार्डिंग स्टूडियो, रिंगटोन कम्पोजिंग, म्यूजिक मिक्सिंग, ऑडियो कंपनी आदि का कार्य कर सकते हैं। मीडिया में संगीत आलोचना और सांस्कृतिक रिपोर्र्टिंग में भी संगीत की समझ आपकी प्रोफाइल को मजबूत करती है। डिस्क जॉकी के रूप में फ्रीलांसिंग भी अच्छा और आधुनिक कैरियर विकल्प बन सकता है।  इसी तरह लीक से हट कर कैरियर बनाने के इच्छुक विद्यार्थी म्यूजिक थैरेपी जैसी नवीन विधा में हाथ आजमा सकते हैं।

रोल मॉडल 1
हॉबी से मशहूर हुए डॉ. संजय

संगीत के क्षेत्र में पहचान बनाने के सपने देखने वाले विद्यार्थियों के लिए सी.एस.जे.एम. यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. संजय स्वर्णकार मिसाल हो सकते हैं। एक तरफ वह अंग्रेजी प्राध्यापक के रूप में जाने जाते हैं, वहीं उनकी पहचान मशहूर भजन-गजल गायक के रूप में भी है।
श्री स्वर्णकार ने अपनी हॉबी और कैरियर में ऐसा बढिय़ा संतुलन साधा है कि आज दोनों क्षेत्रों में उनका नाम 'खरा सोना' समझा जाता है। वे बताते हैं, ''मुझे संगीत सीखने की प्रेरणा 1982 में स्नातक की पढ़ाई के दौरान एक गिटारिस्ट दोस्त से मिली थी, लेकिन मेरा लक्ष्य अंग्रेजी में डॉक्टरेट करने का ही था। आज मैं अध्यापन के साथ पीएचडी कराता हूं, साथ ही संगीत के क्षेत्र में प्रोफेशनल सिंगर हूं। मैं अपने ग्रुप के साथ स्टेज प्रोग्राम करता हूं जिससे मुझे संतुष्टि मिलती है।'
इस हॉबी में परफेक्ट होने का ही परिणाम है कि यद्यपि संगीत उनका विषय नहीं है, किन्तु विश्वविद्यालय ने अपने यहां खुले डिपार्टमेंट ऑफ म्यूजिक में उन्हें कोआर्डिनेटर की जिम्मेदारी सौंपी है। संगीत संबंधी कई सम्मान प्राप्त कर चुके श्री स्वर्णकार कहते हैं, ''यदि संगीत में आप की रुचि है तो आप इसे कैरियर के रूप में चुन सकते हैं। यदि यह सिर्फ आपका शौक है तो भी आप अपने कार्य से पैसा और नाम दोनों पा सकते हैं।'

रोल मॉडल 2
म्यूजिक स्टूडियो चला रहे हैं सुमन

संगीत के क्षेत्र में कैरियर बनाने के उत्सुक विद्यार्थी कानपुर के सुमन शर्मा से प्रेरणा ले सकते हैं। स्टूडेंट लाइफ में पढ़ाई के साथ संगीत का शौक रखने वाले सुमन ने संगीत में प्रभाकर की शिक्षा लेकर अपने कैरियर की शुरूआत एक वादक के रूप में की थी। उन्होंने अपने कार्य की शुरुआत मुंबई में एक गिटारिस्ट के रूप में की। कुछ वर्षों तक कार्य करने के बाद उन्हें टी. सिरीज म्यूजिक कंपनी में रिकार्डिस्ट के रूप में कार्य करने का अवसर मिला।
हमेशा कुछ सीखने की ललक रखने वाले सुमन ने वहाँ वर्तमान संगीत और तकनीक के बारे में जानकारी एकत्र कर अपने कार्य को और बेहतर बनाया। वर्तमान में सुमन कानपुर के पांडुनगर मुहल्ले में अपना म्यूजिक रिकार्डिंग स्टूडियो चला रहे हैं। सुमन कहते हैं, ''संगीत के क्षेत्र में रोजगार के ढेरों अवसर हैं। इसके लिए आवश्यक है कि आपको शास्त्रीय संगीत के बारे में गहरी जानकारी हो। इसके पश्चात आप इस क्षेत्र में तकनीकी, गायन, वादन आदि कोई कार्य कर सकते हैं। म्यूजिक रिकार्डिंग कार्य से जुड़े सुमन कहते हैं, ''यह वह क्षेत्र है जिसमें आप अन्य कार्य करने के साथ ही इस कार्य को कर सकते हैं, लेकिन इन सबके साथ आवश्यक है धैर्य और सच्ची लगन।'

Saturday, May 23, 2009

अइयो आइसक्रीम!










वह दिन गए जब आइसक्रीम सिर्फ बच्चों की पसंद हुआ करती थी, बल्कि आज आइसक्रीम के दीवानों में बच्चों के साथ बड़ी संख्या में युवक-युवतियां और वयस्क भी शामिल हैं

वैसे तो आइसक्रीम का स्वाद वर्ष भर लोगों को अपना दीवाना बनाए रखता है, लेकिन बच्चे हों या बड़े गर्मियां शुरू होते ही आइसक्रीम पार्लरों में 'ठंडा-ठंडा कूल-कूल' होने के लिए पहुंच ही जाते हैं। अशोकनगर, गुमटी नंबर 5, स्वरूपनगर, मालरोड आदि जगहों में स्थित आइसक्रीम पार्लरों में दिन भर इसके प्रेमियों की चहलकदमी देखी जा सकती है।
इन दिनों शहर के आइसक्रीम पार्लरों में लवरनेस्ट और आइरिश जैसे नए-नवेले फ्लेवर्स में आइसक्रीम का स्वाद खूब मजे से लिया जा रहा है। गर्मियों के इस मौसम में कोल्डड्रिंक्स के बाद सबसे ज्यादा लुभाने वाली चीज है आइसक्रीम। वह दिन गए जब आइसक्रीम सिर्फ बच्चों की पसंद हुआ करती थी, बल्कि आज आइसक्रीम के दीवानों में बच्चों के साथ बड़ी संख्या में युवक-युवतियां और वयस्क भी शामिल हैं।
फ्लेवर्स की है भरमार
आइसक्रीम के बाजार में फ्लेवर्स की कोई कमी नहीं है। यहाँ इतनी वैरायटियां उपलब्ध हैं कि किसी एक को चुनना मुश्किल होता है। कंपनियां हर वर्ष ग्राहकों को लुभाने के लिए नये-नये फ्लेवर बाजार में उतारती हैं। सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले फ्लेवर्स में अमेरिकन ब्लू, बटर स्काच, स्वील, केसर-पिस्ता आदि है।
युवाओं की खास पसंद 
आज आइसक्रीम के दीवानों का सबसे बड़ा वर्ग युवाओं का है। एक आइसक्रीम पार्लर संचालक अविनाश सिंह की मानें तो, ''युवाओं की पसंद को ही ध्यान में रखकर कंपनियां आइसक्रीम के नाम और फ्लेवर्स का निर्धारण करती हैं। तपिश और गर्मी भरे मौसम में युवा अपने फ्रेंड के साथ खिंचे चले आते हैं। यहां उन्हे तन और मन, दोनों को ही ताजा करने का मौका मिलता है।'
सोडा और शेक भी
आइसक्रीम के साथ ही सोडा और शेक भी पसंद किये जाते हैं। स्ट्राबेरी, मैंगो पाइनएप्पल, चीकू के साथ लीची के फ्लेवर में शेक का मजा लिया जा सकता है। इनमें वैरायटियां तो हैं ही, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के फ्लेवर भी मौजूद हैं।
जमाना ज्यूस्टिक्स का
ब्रांडेड आइसक्रीम में कप्स एंड कोन के साथ ही ज्यूस्टिक्स भी काफी पसंद किए जा रहे हैं। च्वाइस आइसक्रीम के किशन चौरसिया बताते हैं, ''कंपनियों ने नींबू पानी और कई शर्बतों के फ्लेवर में ज्यूस्टिक्स बाजार में उतारे हैं। यह ग्राहकों को खूब लुभा रहे हैं। गर्मियों के इस मौसम में बर्थ डे, पिकनिक और पार्टियों में इनकी काफी डिमांड है।'
कायम है कुल्फी
शहर का आइसक्रीम मार्केट भले ही देशी-विदेशी ब्रांडेड आइसक्रीम से पटा हो लेकिन लोगों को मटका कुल्फी का स्वाद आज भी उतना ही पसंद आ रहा है। गली, मुहल्लों, चौराहों पर ठेलों पर बिकती मटके वाली फालूदा कुल्फी का अपना ग्राहक वर्ग है। फालूदा कुल्फी के शौकीन राजेश कहते हैं कि  बाजार में चाहे जितने फ्लेवर उपलब्ध हों, लेकिन मटके वाली कुल्फी की बात ही कुछ और है। इसे जहां चाहो आराम से खरीदो और खाओ, साथ ही दाम भी वाजिब होते हैं!

बन रही हैं इमारतें रंग-बिरंगी










कभी इंटीरियर के लिए मुफीद माने जाने वाले चटख रंगों का प्रयोग अब इमारतों के एक्सटीरियर में भी खूब हो रहा है। कानपुर में पिछले कुछ वर्षों में बनी और वर्तमान में बन रहीं इमारतों पर नजर डालने पर पता चलता है कि शहर में चटख रंगों वाली इमारतों की संख्या बढ़ती ही जा रही है

इन्हें आप आधुनिक काल की स्थापत्य कला का आरंभिक नमूना मान सकते हैं। आरंभिक इसलिए कि शायद भविष्य के कानपुर में आपको ऐसी इमारतें बहुतायत में देखने को मिलें। इन आधुनिक बिल्डिंगों की कई विशेषताएं इन्हें दर्शनीय बनाती हैं। नीले, लाल, नारंगी, हरे जैसे  ब्राइट कलर्स का खूब प्रयोग किया जाता है। साथ ही किसी माडर्न आर्ट सरीखी आड़ी-तिरछी रेखाएं भी इन इमारतों की खास पहचान होती हैं।
रेव-थ्री,  रेव मोती, यूनिवर्सिटी के थियेटर हॉल, मेगा मॉल्स, कुछ स्कूल्स और रेनोवेट हुईं कुछ टाकीजों का नाम ऐसी इमारतों में लिया जा सकता है। इस ट्रेंड के बारे में इंटीरियर डिजाइनर दिव्या पाण्डेय कहती हैं, ''लाल-नीले-पीले जैसे चटख रंगों वाली बिल्डिंग्स लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं, इसलिए पब्लिक प्लेसेस की बिल्डिंग्स में ऐसे रंगों का खूब प्रयोग किया जा रहा है।'
दिव्या की बात पर समर्थन जाहिर करते आनंद बिल्डर्स के आनंद गुप्ता कहते हैं, ''चटख रंगों का इस्तेमाल रेजीडेंशियल की अपेक्षा कामर्शियल बिल्डिंग्स में अधिक होता है। 'जो दिखता है वही बिकता है' स्लोगन इस चलन पर पूरी तरह से फिट बैठता है। लोग बिल्डिंग की तरफ आकर्षित हों, इस उद्देश्य के तहत ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाता है।'
चटख रंगों वाली यह इमारतें कानपुराइट्स को आकर्षित तो कर ही रही हैं, साथ ही कानपुर को रंग-बिरंगा खूबसूरत लुक भी प्रदान कर रही हैं। इंटीरियर डेकोरेटर विवेक वर्मा के मुताबिक बेहतर कलर स्कीम इमारत की डिटेल को खुल कर और बेहतर तरीके से उभारती है। चटख रंगों वाली बिल्डिंगों की कलर स्कीम्स में रंगों के साथ ही माडर्न आर्ट सरीखी रेखाएं, मैनेक्वीन्स, स्टैचू आदि चीजों का भी प्रयोग किया जाता है। लोगों को आकर्षित करने के साथ ही इनका उद्देश्य अपनी इमारत को अलग अंदाज प्रदान करना होता है।
आजकल नयी बनने वाली इमारतों में चटख रंगों के साथ ही ग्लास का चलन भी देखने को मिल रहा है। ग्लास और लुभाते रंगों वाली इन  इमारतों ने नवीन निर्माण शैली को जन्म दिया है। दूर से चमकती इन इमारतों को रुक कर देखते लोगों को देख कर कहा जा सकता है कि यह इमारतें लोगों को आकर्षित करने के अपने उद्देश्य में कामयाब हैं!

पुनर्जन्म के 5 मिनट

किसी दुर्घटना के बाद कैसे दोबारा शुरू की जा सकती है जीवनरेखा, यही हुनर आम आदमियों को सिखा रहा है कानपुर के चिकित्सकों का एक दल

दुर्घटना अथवा अनहोनी पर किसी का बस नहीं चलता है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि किसी हादसे में घायल व्यक्ति को अगर समय रहते सही प्राथमिक उपचार मिल जाए तो उसे दूसरी जिंदगी मिल सकती है। प्राथमिक उपचार की यह सीमारेखा दुर्घटना से मात्र पांच मिनट की होती है और यह छोटा सा समय अंतराल ही तय कर देता है कि व्यक्ति की मृत्यु होगी अथवा उसको मौत के मुंह से खींच कर इसी जिंदगी में दिया जा सकेगा पुनर्जन्म!
मार्ग दुर्घटना, हृदयाघात, जहरीली गैस रिसाव, विद्युत करंट, पानी में डूबना, लकवा मार जाना आदि मामलों में व्यक्ति की मृत्यु चोटों से कम, बल्कि दम घुटने से ज्यादा होती है। ऐसी दुर्घटनाएं किसी परिवार का सहारा न छीन सकें; किसी घर का चिराग न बुझा दें, इस अच्छी भावना से कानपुर में काम कर रही एक गैरसरकारी संस्था प्राणोदय आम लोगों को बिना किसी शुल्क के और उन्हीं की चुनी हुई जगह पर सीपीआर-बीएलएस तथा बेसिक ट्रामा मैनेजमेंट सिखाती है। दुर्घटना के बाद रुके हुए दिल को पुन: धड़काने का यह कौशल तथा संबंधित व्यक्ति को पर्याप्त चिकित्सा सहायता मिलने तक जीवित बनाए रखने का यह विज्ञान कई जानों को बचाने में कामयाब रहा है।
यह कानपुर के लिए गर्व की बात है कि पूरे देश में यही इकलौता शहर है, जहां कुछ समाजसेवी भावना वाले व्यक्तियों और चिकित्सकों ने जीवनदीप जलाए रखने की ऐसी पहल की है और वह भी बिना किसी आर्थिक लाभ की भावना से। इसकी नींव आज से ५ वर्ष पूर्व कानपुर के एक चमड़ा व्यवसायी महबूब रहमान द्वारा समाजसेवा के लिए कुछ ठोस करने के विचार से पड़ी और इस शुभ संकल्प में कुछ डाक्टरों ने अपना कौशल जोड़ दिया। आज प्राणोदय की प्रमुख टीम में भारतीय वायुसेना के सेवानिवृत्त स्क्वाड्रन लीडर डा. सुनीत गुप्ता, डा. राजू केडिया और डा. प्रदीप टंडन जैसे चिकित्सक शामिल हैं।
किसी भी रूप में अनुदान न स्वीकारने वाली इस संस्था के पास 4 आयातित मानव पुतले हैं। यह चिकित्सक आम जनता द्वारा तय किए गए स्थान पर पहुंच कर 2-3 घंटे की कार्यशाला आयोजित करते हैं। इसमें लेक्चर्स, स्लाइड शो, पुतलों पर चिकित्सकों का प्रदर्शन और अंतत: आम जनता का पुतलों पर अभ्यास शामिल होता है। इन चिकित्सकों ने अब तक तकरीबन 62 कार्यशालाओं द्वारा लगभग 7,000 लोगों को दुर्घटना के बाद जीवन रक्षा का प्रशिक्षण दिया है। इसमें आम नागरिकों तथा ग्रामीणों के अतिरिक्त ट्रैफिक पुलिस, फायर ब्रिगेड, फैक्ट्री श्रमिक, स्कूली छात्र-छात्राएं, भारतीय वायुसेना कर्मचारी तथा एनसीसी कैडेट शामिल हैं। 
डा. सुनीत गुप्ता के अनुसार,''दुर्घटनाओं के बाद अक्सर लोग तमाशबीन बन कर मजमा लगा लेते हैं, लेकिन कोई बिरला ही मदद के लिए आगे बढ़ता है। वह भी घायल को अस्पताल ले जाने तक अपनी ओर से कुछ नहीं कर पाता और कई बार यह बेबसी मौत के रूप में सामने आती है। जीवन बचाने का यह कौशल सीखना बहुत आसान है; इससे आप घायल को उसकी साँसे वापस सौंप सकते हैं। महिलाओं और बड़े बच्चों को भी यह हुनर सीखना चाहिए, इससे वे घरों और स्कूलों में दुर्घटनाओं का दुष्प्रभाव रोक सकेंगे। हमारी अपील बस इतनी है कि दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को देख कर आगे बढ़ जाने अथवा झुंड में शामिल होने की जगह उसकी सहायता का हुनर सीखिए और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित कीजिए। दुर्घटना किसी को बता कर नहीं आती। अगर आप किसी की सहायता के लिए आगे नहीं बढ़ते तो यह उम्मीद कैसे करेंगे कि कल आप या आपका कोई परिचित ऐसी ही स्थिति में होने पर अगली सुबह का सूरज देख पाएगा?'

जहर चाहिए या जिंदगी

रासायनिक खादों और जहरीले पानी से सिंचाई के कारण सब्जियों और अनाज में घुल रहा है धीमा जहर। ऐसे में स्वास्थ्य के लिए वरदान बनकर आई है जैविक खेती और कानपुर में भी हो रहे हैं इसके प्रयोग

पहली नजर में यह बरसात आने से पहले चलाए जाने वाले नाला सफाई अभियानों जैसा ही लगा। आवास विकास कालोनी, हंसपुरम की सीमा से गुजरते हुए गंदे नाले के पानी को कुछ लोग बड़ी पाइपों और मशीन द्वारा खींच रहे थे, लेकिन जरा ठहरिए, यह सरकारी कर्मचारी नहीं-स्थानीय किसान थे। यह नाला सफाई का सामुदायिक अभियान भी नहीं, पास के खेतों की सिंचाई का तरीका था। उन हरी-भरी सब्जियों के लिए, जिन्हें डाक्टर इसलिए कच्चा खाने की सलाह देते हैं ताकि हमारे स्वास्थ्य की रक्षा हो और हम निरोगी रहें!
शहरी इलाकों और इससे लगी देहात की सीमा में अनाज और सब्जियों को उगाने के लिए यह खेल उसी तरह आम है, जैसे दूध पाने के लिए गाय-भैंस को नियमित रूप से हार्मोन इंजेक्शन देना। तर्क यह कि इस सड़ांध मारते जहरीले पानी से 'सब्जियों को खूब पोषण मिलता है और यह हरी-भरी हो जाती हैं, जबकि हकीकत यह है कि इस प्रक्रिया में सब्जियां धीमे जहर से भरी थैलियों में तब्दील हो जाती हैं। 
डायटीशियन और योग विशेषज्ञ अन्नपूर्णा तिवारी की राय है कि यह जिंदगी के नाम पर जहर देने वाली बात है। शीतल पेयों में कीटनाशकों की छोटी से मात्रा पाए जाने पर देश भर में विरोध हुआ, वहीं आपके सलाद से लेकर रोटी तक में घुल रहे इस जहर को आप चुपचाप खा लेते हैं। सब्जी ताजी है? का सवाल पूछना याद रहता है और आप यह कभी नहीं पूछते कि यह कैसे उगाई गई है? आज रासायनिक खादों और नालों के जहरीले पानी की बात छोडि़ए, लौकी-कद्दू में आक्सीटोसिन हार्मोन इंजेक्शन तक ठोंके जा रहे हैं ताकि वे एक रात में सरसरा कर बढ़ जाएं।
श्रीमती तिवारी को यह जान कर कुछ राहत मिलेगी कि जागरूक कानपुराइट्स अब इस धांधली के बारे में सवाल पूछने लगे हैं और इनमें से कई ने जहर को छोड़ जिंदगी का रास्ता पकड़ लिया है। यह है आर्गेनिक फार्मिंग यानी जैविक खेती, जहां रासायनिक खादों और जहरीले तत्वों का प्रवेश मना है। यह ऐसे खेत हैं जहां धरती मां रासायनिक खादों के चाबुक खाकर नहीं, बल्कि अपनी स्वाभाविक खुराक पाकर हरा सोना उगाती है। आज दुनिया भर के फैमिली स्टोर्स और मेगा माल्स में आर्गेनिक उत्पाद बिकते हैं; अंतरराष्ट्रीय होटल समूह अपनी मेन्यू लिस्ट में इनका जिक्र करते हैं और अब कानपुर के निजी फार्म हाउसों में इस पर खूब प्रयोग चल रहे हैं।
सरसौल में सुदर्शन कृषि फार्म में जैविक खाद के प्रयोग से गेहूं की उपज लेने वाले शम्मी मल्होत्रा कानपुर फ्लोरिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। शम्मी कहते हैं, ''मैंने अपने अनुभव से पाया है कि जैविक खाद से तैयार अनाज और सब्जियों में प्राकृतिक मिठास होती है, इसलिए मैंने इसे आजमाने का फैसला किया। फूलों पर प्रयोग के बाद अब मैं आर्गेनिक अनाज को घरेलू और परिचितों के इस्तेमाल के लिए उगा रहा हूं और यह अच्छा अनुभव है।
अब स्थानीय किसानों के साथ अपने इन अनुभवों को बाँटने के लिए शम्मी सीएसए के कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से कार्यशालाएं भी आयोजित करवा रहे हैं। 
शम्मी की ही तरह फ्लोरल शॉप कली कुंज के सुनील तिवारी इस तकनीक का प्रयोग गुलाब पर कर चुके हैं और नतीजे उत्साहवर्धक रहे, वे कहते हैं कि इस फूल का प्रयोग उपहार के साथ गुलाबजल और गुलकंद के लिए भी होता है। इसलिए मैंने देसी गुलाब के लिए अपने उत्पादक से जैविक खाद ही आजमाने को कहा। सुनील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उनके उत्पादक ने उन्हें सुनहरे शहद की एक बड़ी बोतल यह कहते हुए भेंट की कि, ''यह प्राकृतिक गुलाब के प्रति आकृष्ट हुई मधुमक्खियों की भेजी सौगात है।
सुनील इस छोटी सी घटना को एक सबक के रूप में देखते हैं, ''सूखी पत्तियों और गोबर-भूसे की मिश्रित कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट प्लांट और प्राकृतिक ढंग से धरती पर दबाव दिए बिना उपज का यह तरीका सस्ती रासायनिक खादों की तुलना में महंगा पड़ता है, लेकिन लंबे समय में यह धरती की उस उर्वरा शक्ति और जैव विविधता को लौटा देता है, जो रासायनिक खादों के कारण क्षीण हो चुकी थी!'