सॉफ्टवेयर और आईटी सेक्टर में स्थानीय युवाओं को मिल रहे विदेशी अवसरों की बदौलत बदल रही है अभिभावकों की सोच और जीवनशैली
तीन साल पहले एल.टी.ए. की बदौलत पति के साथ हरिद्वार की यात्रा पर गईं श्रीमती कृष्णा दीक्षित के पास जीवन से संतुष्ट होने के पर्याप्त कारण थे। आखिरकार बैंक कर्मचारी पति के साथ वैवाहिक जीवन के 32 वर्षों में उन्होंने मसूरी से लेकर मदुरै तक लगभग उन सभी भारतीय पर्यटन स्थलों की यात्रा की थी, जिनकी कल्पना औसत मध्यवर्गीय परिवार कर सकता है, लेकिन 2008 की जनवरी ने उनकी जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ा दिया। इस महीने वे अपनी पहली यूएसए ट्रिप पर गईं (जो उनके जीवन की पहली विदेश यात्रा भी थी) और इसके लिए उन्हें अथवा पति सुशील को एक नया पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा।
नहीं, यह पैकेज उन्हें न ही किसी टूरिज्म प्रमोशन कंपनी ने दिया था और न ही उनकी लॉटरी लगी थी। वे तो अपने बड़े बेटे राघवेंद्र का 'फ्लैट सेट करने के लिए' न्यूयार्क गईं थीं, जहाँ वह एक जर्मन इंडस्ट्रियल ट्रांसफार्मर कंपनी के अमेरिकी मुख्यालय में सिस्टम इंजीनियर है। सो, कभी पुखरायां के एक छोटे से गाँव से ब्याह कर कानपुर आईं कृष्णा सास-बहू के सीरियल्स और चटनी-पुलाव बनाने से ऊपर अब हॉलीवुड के फिल्म स्टूडियो और मस्टर्ड सॉस-फ्राइड राइस विद बेबीकार्न की बात भी कर लेती हैं। आज उनके एलबमों में पाँच सौ रुपए के कोडक कैमरा से खींची गई पुरानी तस्वीरों से लेकर सोनी साइबर शॉट की तस्वीरों के डिजिटल प्रिंट तक शामिल हैं। इटैलियन कटग्लास में लाइम स्क्वैश सर्व करती यह 'फॉरेन रिटर्न माँ' राघवेंद्र की तारीफ करते हुए नहीं अघाती, ''श्रवणकुमार ने बंहगी में बिठा कर माँ-बाप को सारे तीर्थ करवाए थे और राघवेन्द्र हमको बोइंग में बिठा कर दुनिया दिखा दिए!''
कभी केरल और पंजाब में दिखने वाला डॉलर, दिरहम तथा रियाल का बहाव अब उत्तरप्रदेश की ओर घूम गया है और तकनीकी-शैक्षणिक रूप से समृद्ध कानपुर इसका बड़ा केंद्र सिद्ध हो रहा है। अगर 70' के दशक में पंजाब से कनाडा और यूएसए के लिए भारतीय अप्रवासियों की बड़ी संख्या कृषि श्रमिकों तथा छोटे उद्यमियों की थी; 80' के उत्तरार्ध में खाड़ी देशों के 'पेट्रो डॉलर' ने केरल के मिस्त्रियों-प्लंबरों और ड्राइवरों को आकर्षित किया था, तो 21वीं शताब्दी के शुरुआती छह वर्ष कंप्यूटर प्रोफेशनल्स और आईटी-आईटीईएस प्रोवाइडर्स के लिए यूएसए, यूरोप तथा फार ईस्ट की चाभी साबित हुए हैं।
क्या युवा प्रतिभाओं को विदेशी नौकरी के रूप में कानपुर की बड़ी हिस्सेदारी की बात कुछ बढ़ा-चढ़ा कर की जा रही है? फैक्ट्स और वर्क परफारमेंस के रूप में देखा जाए तो यह हिस्सा तो बंगलौर, हैदराबाद, मुंबई और एनसीआर के पास होना चाहिए, जहाँ सॉफ्टवेयर कंपनियों और बैक ऑफिस/कॉल सेंटर का व्यवसाय बड़े पैमाने पर है। इस बात को स्पष्ट करते हैं कंप्यूटर एजुकेशन इंस्टीट्यूट डाटा एक्सपर्ट के निदेशक दीपक शुक्ला, ''दरअसल, कानपुर में इन व्यवसायों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का पर्याप्त विकसित न होना ही कंप्यूटर ऑपरेशन्स में माहिर प्रतिभाओं के लिए वरदान बन गया है। स्थानीय युवा जानते हैं कि इन क्षेत्रों में कैरियर के लिए उन्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा। एक बार शहर से बाहर कदम पड़ा तो इनके लिए एनसीआर और न्यूयार्क एक बराबर है, लेकिन देश की तुलना में विदेशी आय का अंतर कई बार लाखों रुपए पड़ जाता है। स्थानीय स्तर पर सुविधाएं मिलने के कारण सॉफ्टवेयर और बैक ऑफिस हब कहलाने वाले भारतीय शहरों केे युवा बाहर निकलने की कुछ कम सोचते हैं जबकि कानपुर सरीखे शहरों के युवाओं का लक्ष्य ही होता है चलो अमेरिका!''
विदेश में वर्क परमिट की इस चाभी ने अगर कानपुर के कई युवाओं के लिए सुनहरे भविष्य का द्वार खोल दिया तो वहीं उनके द्वारा कमाई जा रही विदेशी मुद्रा यहाँ बसे अभिभावकों के लिए सुखद वर्तमान की गारंटी साबित हो रही है। आईआईटी के स्नातकों को मिलने वाले 25-50 लाख रुपए के औसत पैकेज को दरकिनार भी कर दें तो यूएसए में सामान्य कंप्यूटर प्रोफेशनल मासिक 3800 डॉलर तो कमा ही लेते हैं। विदेश के हिसाब से यह रकम बहुत बड़ी नहीं, लेकिन भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करते ही यह 1,71,000 प्रतिमाह हो जाती है और अगर कहीं यह नौकरी ब्रिटेन में हुई तो पाउंड से परिवर्तित रकम बनी 3,04,000। युवाओं द्वारा इस धनराशि का एक बड़ा हिस्सा बचत के रूप में भारत में बसे परिवार को भेज दिया जाता है और अभिभावक बन जाते हैं इस रकम का इस्तेमाल करने वाले फंड मैनेजर।
शहर में विदेशी नौकरी की स्वीकार्यता इस कदर बढ़ी है कि परिचितों के बीच हर तीसरे-चौथे घर में कोई न कोई बाहर बसे किसी रिश्तेदार का किस्सा सुनाने लगता है। कैलीफोर्निया में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत अजय तिवारी जानकारी देते हैं, ''यूएसए में बैचलर के लिए औसत 1200 डॉलर की रकम जीवन-यापन को काफी होती है। अगर कंपनी अच्छी है तो इसकी सुविधाएं ही इतनी अधिक होती हैं कि यह 1200 डॉलर भी आप अपनी खुशी के लिए खर्च कर डालते हैं।'' रामबाग में बसे परिवार को रुपए भेजने के लिए अजय सिटीबैंक एनआरआई मनीट्रांसफर स्कीम का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, ''भारतीय युवाओं में बचत की इस आदत को देखते हुए ऐसी कई फाइनेंशियल सर्विसेज अस्तित्व में आ गई हैं। आप भारत से जुड़ी कोई भी समाचार अथवा सूचनापरक वेबसाइट देखें, इनके विज्ञापन तुरंत पॉपअप हो जाते हैं।''
अजय का ही उदाहरण लें तो कैलीफोर्निया से कानपुर आया यह पैसा उनके परिवार की जीवनशैली बदल चुका है। यूएसए में 3-3 साल के दो वर्क परमिट रिन्युअल की बदौलत उनका रामबाग स्थित घर मध्यवर्गीय जीवनशैली को छोड़ उच्चमध्यवर्गीय अंदाज अपना चुका है। रामगंगा सिंचाई परियोजना में एलडीसी क्लर्क रहे रामबालक तिवारी बेटे की उपलब्धियां गिनाते हैं, ''उसकी वजह से घर में जेन से लेकर जेनरेटर तक आ गया।''
12 दिन की छुट्टी लेकर शहर आए अजय के लिए रिश्तों की लंबी सूची है लेकिन बात शायद सर्दियों तक ही जम पाएगी। वजह लड़कियों की खूबसूरती नहीं और दहेज का बिंदु तो यहाँ सिरे से नदारद है, अजय की जरूरत है, ''एक ऐसी लड़की जो कंप्यूटर प्रोफेशनल हो और वहाँ (यूएसए) में मेरे साथ काम कर सके।'' शादी-ब्याह के लिए जन्मपत्रियां मिलाने वाले संतोष शास्त्री भी इन 'एनआरके'' (नॉन रेजिडेंट कानपुराइट्स) दूल्हों में पनपे इस चलन की पुष्टि करते हैं, ''अच्छी कमाई करने वाले यह लड़के शादी तो माँ-बाप की मर्जी से ही करते हैं लेकिन शर्त यही है कि लड़की भी कंप्यूटर इंजीनियर हो और विदेश में रह सके। ऐसी लड़की मिल जाती है तो दहेज की माँग लगभग शून्य हो जाती है और बिस्वा-गोत्र की ऊँच-नीच भी नहीं रहती। कई बार लड़के की यह इच्छा पूरी करने के लिए खुद माँ-बाप वर्ग का बंधन तोड़ देते हैं।'' अच्छा ही है, जब बात कर्म की कुंडली मिलाने की हो तो जन्मकुंडली का अर्थ ही क्या बचता है? आखिर इस रिपोर्ट के शुरुआती पैराग्राफ में 'अभिभावकों की जिंदगी और सोच का दायरा हजारों मील बढ़ गया है' की बात यूँ ही तो नहीं लिख दी गई थी!
bahutot kee sahi jagah chot kee aapne barson pehle shuru huee kahaani kaa ab ek naya pehlu saamne nikal kar aa raha hai.....
ReplyDeleteबहुत बहुत सही कहा आपने....
ReplyDeleteइस प्रभावी aalekh हेतु आभार आपका...
बिल्कुल सही नब्ज पकड़ी है आपने आज के समाज की..
ReplyDeleteYour essay is nice, but in a foreign country, you earn in euros/ dollars,and your expenses are also in euros/ dollars, you have fogotten to mention this in your blog.
ReplyDeleteThere are two categories of NRI:
1. One who saves money and send it to India as an investment.
2. Like an indian family they spend each cent in the foreign country on Investment and education.
But we are seeing many changes in indian society, as now established families have one child aborad.
achchha lekh hai
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