Tuesday, June 2, 2009

गर्मियों में मस्त है माहौल मोतीझील का


विभिन्न झूलों और ज्वॉयराइड्स का लुत्फ उठाया जा सकता है यहाँ चल रहे एक फेयर में 

इन दिनों जैसे-जैसे सूरज ढलता है, नागरिकों के स्वागत में मोतीझील का मैदान सैंकड़ों बल्बों और ट्यूबलाइटों से रोशन हो उठता है। अरे, भीषण बिजली कटौती के दौर में हम यह क्या लिख रहे हैं, लेकिन यह सच है। अंतर है तो सिर्फ इतना कि जेनसेट्स द्वारा इस अबाध विद्युत आपूर्ति का श्रेय केस्को को नहीं, ड्रीमलैंड इंटरटेनमेंट को जाता है, जिसका फन-एन-फन फेयर गर्मियों में मोतीझील को बदल चुका है 'मोस्ट हैपनिंग स्पॉट' में।
कानपुर में आठ सालों से आयोजित हो रहे इस मनोरंजक मेले में ऐसा बहुत कुछ है जो बच्चों, उनके अभिभावकों और युवा दंपतियों को यहाँ तक खींच रहा है। एक विशालकाय किले के द्वार से होकर गुजरने वाला रास्ता उन्हें कुछ घंटों के लिए ही सही, एक ऐसी मनोरंजक सैर पर ले जाता है, जहाँ सभी के लिए कुछ-न-कुछ आकर्षक है। आखिरकार शहर में ऐसा कितनी जगहों पर होता है जहाँ आप यू.पी. किराना की नन्ही स्टूडेंट्स सिमरन और काजल की तरह ऊँट की सवारी करने के बाद नारियल पानी का लुत्फ उठा सकते हों? ऐसा और कहाँ होता है कि बच्चे मिनी जीप से लेकर सिंगल सीटर प्लेन और फुदकते मेंढकों की सवारी कर सकें और ऐसा भी भला कहाँ-कहाँ होता है कि वे गोविंदनगर से आए राघव और विजय की तरह दस रुपए में हाथ भर लंबाई वाले बुढि़या के बाल चखते हुए चार्टर्ड ट्रेन और गो-कार्ट में बैठ सकें?
शहर के बीचोंबीच लगा यह मनोरंजक मेला मिजाज में तनिक कस्बाई है और शहरी बनावटीपन से यही दूरी इसकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारक भी है। यहाँ जादू के हैरतअंगेज कारनामों के पंडाल हैं और हैं गुब्बारों पर निशाना बांधने तथा रहट-झूलों जैसे कस्बाई मेलों के पारंपरिक आकर्षण। यहाँ लगे चूडिय़ों के एक स्टॉल पर हमारी मुलाकात हुई डा. कुमार सत्येंद्र से जो अपनी पत्नी डा. प्रीति और बेटी लतिका  के साथ फन-एन-फेयर का आनंद ले रहे थे। छोटी-छोटी कलाइयों में भर-भर कर चूडिय़ां पहने लतिका को अभी ढेर सारी चूडिय़ां और चाहिए थीं और डा. कुमार  बिटिया की एक मुस्कान पर बटुआ खाली करने को तैयार थे, ''यह देख मुझे बचपन याद आ रहा है, जब हम खूब तैयार होकर मेला जाते थे कि आज तो पूरा थैला भर कर लौटना है।''
...और यहाँ थैला भरने के लिए आपको थैला भर कर रुपए नहीं लाने पड़ते हैं, न ही सीटी वाले तोतों को खरीदने में आपके हाथों के तोते उड़ते हैं। कारपोरेट शब्दावली में कहा जाए तो यह 'बजट बाजार' है, जहाँ विक्रेताओं की निगाह उस सेग्मेंट पर रहती है, जिसे अर्थशास्त्रियों ने 'द ग्रेट राइजिंग मिडिल क्लास' की संज्ञा दी है। कम मुनाफा लेकिन ज्यादा बिक्री के सिद्धांत पर काम करने वाले दुकानदार कैसे सफल होते हैं, इसे यहाँ बखूबी सीखा जा सकता है।
ड्रीमलैंड फन-एन-फेयर के रूप में यह इंटरटेनिंग एग्जीबिशन आज राष्ट्रीय स्वरूप ले चुकी है लेकिन क्या आपको इसकी सबसे खास बात पता है? यह प्रोजेक्ट कानपुर के ही दो युवाओं सचिन त्रिपाठी और रवीन्द्र कपूर का ब्रेनचाइल्ड है और एक छोटी सी पूँजी के साथ इसकी शुरुआत के समय यह दोनों मित्र क्रमश: 22 और 25 वर्ष के थे। तब संसाधनों को जुटाने के साथ अपने परिवारों को राजी करना भी उनके लिए बड़ी मशक्कत थी, लेकिन नाम के मुताबिक आज ड्रीमलैंड न केवल आगंतुकों बल्कि सचिन और रवीन्द्र के लिए वह जगह बन चुकी है, जिसका कभी इस शहर में सपना ही देखा जा सकता था। यहाँ मस्ती करते बच्चों की 'ही-ही' 'ठी-ठी'' को अपनी आँखों से देखेंगे, तो आप को भी यकीन हो जाएगा!

2 comments:

  1. कानपुर में हमारे नानी घर नेहरू नगर से मोतीझील पास ही में है और अक्सर जब छुट्टियों के दौरान यहाँ आते थे तो इस इलाके की सैर जरूर कराई जाती थी। बधिया विवरण दिया है आपने।

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  2. ये कब बना ? मेरी ससुराल है कानपुर में ...वहां मैंने ४ साल गुजारे....उसे छोडे हुए मुझे ३ साल हो गए ....तब मोतीझील ऐसी तो नहीं थी ...हाँ लेकिन तब भी हम वहां घूमने जाते थे ....बहुत अच्छा लगता था

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